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भावश्रावक के सत्रह लक्षण
.. टीका का अर्थ यह याने उक्त स्वरूप प्रवचन कुशल छः
भेद का-छः प्रकार का मुनिवरों ने-पूर्वाचार्यों ने कहा है, उनके कह लेने पर भाव श्रावक के छः लिंग प्रकरण संपूर्ण हुआ, सो बताते हैं__क्रियागत याने क्रिया में दीखते छः लिंग याने अग्नि के लिंग धूम के समान भावश्रावक के याने वास्तविक नाम वाले श्रावक
के लक्षण हैं।
भला, क्या अन्य लिंग भी हैं कि जिससे इन लिंगों को क्रियागत कहते हो ? हां हैं। इसी से कहते हैं कि- भावगयाई सतरस मुणिणो एयस्म विति लिंगाई।
भणियजिणमयसारा पुवायरिया जओ आहु ।। ५६ ।। मूल का अर्थ-इसके भावगत सत्रह लिंग मुनि कहते हैं, क्योंकि जिनमत के सार के ज्ञाता. पूर्वाचार्यों ने इस प्रकार कहा है।
टीका का अर्थ-भावगत याने भाव में स्थित सत्रह ये प्रकृत-भावश्रावक के लिंग अर्थात् चिन्ह हैं, ऐसा मुनि याने आचार्य कहते हैं, क्योंकि जिनमत के सार के ज्ञाता पूर्वाचाये इस भांति कहते हैं, इससे स्वबुद्धि का परिहार कह बताया। इत्थिं'-दिय-स्थ -संसार-विसय -आरंभ'-गेह-दसणओ। गड्डरिगाइपवाहे - पुरस्सरं आगम पवित्ती" ।। ५७ ॥ दाणाइ जहासत्ती-पवत्तणं'' - विहि २ - अरत्तदुद्रुय । मज्झत्थ" - मसंबद्धो५ -- परत्थकामोवभोगी'६ य ॥५८।।