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काष्टोष्ठि का दृष्टांत
साड़ी का कपड़ा जलाकर उसे खूब डराया, तब वह श्रेष्ठ बुद्धि तोता कांपता कांपता सेठ को कहने लगा
हे तात ! आप मुझे बार बार पूछते हो, अतः मैं वाघ और खाई के बीच में पड़ा हूँ, अतएव क्या करू? तब सेठ ने उसे पोंजरे से निकाल दिया, तब वह घर के आंगन में खड़े हुए ऊचे वृक्ष के शिखर पर बैठ कर सब पूर्ववृत्तान्त जो कुछ वह जानता था वह कह गया।
पश्चात् सेठ को नमन करके वह अपने इच्छानुसार स्थान को उड़ गया, अब सेठ उसका चरित्र सुनकर, मन में इस प्रकार विचार करने लगा -
स्त्रियों का अस्थिर प्रेम देखो ! चंचलता देखो, निर्दयता देखो, कामक्ति देखो और कपट देखो!
तथा स्त्रियां मछलियों को पकड़ने की मजबूत जाल के समान, हाथी को पकड़ने के फंदे समान, हिरणों को पकड़ने को चारों ओर बिछाई हुई वागुरा के समान और इच्छानुसार भ्रमण करने वाले पक्षियों को पकड़ने को बनाये हुए खटके के समान इस संसार में विवेक रहित को बंधन के लिये हैं। .. . स्नेह ( तेल ) से भरी हुई, सकजलग्गा ( काजल उत्पन्न करने वाली), स्नेह ( तेल ) को क्षय करने वाली, कलुष और मलीन करने वाली दीपशिखा के समान स्नेह (प्रीति) से पाली हुई, स्वकार्य लग्न (स्वार्थी) स्नेह का क्षय करने वाली, कलुष और मलीन करने वाली महिला है, अतः उसको त्याग दो।
जल (पानी) वाली, दुरंत, द्विपक्ष का क्षय करने वाली, दराकार ( टेढ़ी बांकी), विषम पक्ष वाली और नीचगामिनी