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अभयकुमार का दृष्टांत
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छेदन करने को परशु समान और सुधा समान उज्वल गुणवान श्रणिक नामक राजा था ।
उसके अभयकुमार नामक पुत्र था । वह आगम के अर्थ के परिज्ञान से विस्फुरित बुद्धि से युक्त था और जगत् को आनंद देने वाला था । वहां एक समय सद्धर्म को प्रगट करने वाले सुधर्मा नामक गणधर पांच सौ मुनियों के परिवार से पधारे ।
उनके चरणों को वन्दन करने के लिये शासन की प्रभावना की इच्छा से श्रेणिक राजा परिवार सहित बड़ी धूमधाम से वहां गया। वैसे ही दूसरे नगर जन भी अनेक वाहनों पर चढ़कर भक्ति के बल से रोमांचित हो वहां आये ।
ऐसी प्रभावना देखकर, वहां एक लकड़हारा था वह भी आकर गुरु को नमन कर इस भांति धर्म श्रवण करने लगा । जीवहिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह ये पांच पाप के हेतु हैं, अतएव हे भव्यों ! तुम उनका त्याग करो । यह सुनकर राजा आदि पर्षदा नमन करके घर की ओर चली किन्तु वह आत्मार्थी लकड़हारा वहीं स्थिर होकर रहा । तब चित्त के ज्ञाता गुरु उसको कहने लगे कि तेरा क्या विचार है ? वह बोला कि मैं इतना जानता हूँ कि सदैव आपके चरणों की सेवा करना ।
तब गुरु ने उसे दीक्षा देकर कुशल मुनियों को सौंपा । उन्होंने उसे शीघ्र ही आचार सिखाया ।
वह एक समय गीतार्थ के साथ गोचरी को गया, तब उसकी पूर्वावस्था को जानने वाले नगर लोग उसे देखकर अहंकार से इस भांति बोलने लगे कि - देखो ये महासत्व: