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सम्प्रति राजा का दृष्टांत
____ अब सूत्र पौरुषी और अर्थ पौरुषी पूर्ण होने के अनन्तर भिक्षा के समय हमारे साधुओं का एक संव किसो धनिक के घर गया । तब उक्त धनिक ने अपने को धन्य भाग्य मान कर भक्ति पूर्वक उक्त संघ को बहुत-सा भक्तपान दिया । वह वहां बैठे हुए एक भिखारी ने देखा, जिससे वह सोचने लगा कि- श्रमणों के पुण्य की महिमा देखो! दोनों भिक्षाचर होते हुए, इन पुण्यशालियों को सर्वत्र मिलता रहता है, तब मैं पुण्यहीन होने से गालियां खाता हूँ।
यह सोच वह उनके पीछे लगकर मार्ग में बारम्बार मांगने लगा कि- हे भगवन् ! तुमको सब के यहां से मिलता है, तो मुझे थोड़ा-सा दीजिये। तब साधु बोले कि- हे भोले ! हम तुझे नहीं दे सकते, क्योंकि हमारे व इस धनपति के स्वामी गुरु बस्ती में रहते हैं । तब वह आशा से प्रेरित होकर बस्ती में आकर हम से मांगने लगा, साथ ही साधुओं ने भी मार्ग का सब वृत्तान्त कहा। तब हमने श्रुतज्ञान के बल से प्रवचन को उन्नति होने वाली देख कर उससे सामायिक श्रुत का उच्चारण करवा कर शीघ्र ही दीक्षा दे दी।
पश्चात् उसे मन भरकर मनोज्ञ आहार पानी खिलाया, रात्रि में वह तोत्र विशूचिका से शुद्ध मन से मर गया। वही श्री चन्द्रगुप्त के पुत्र बिन्दुसार के पुत्र अशोक श्री राजा के प्रिय पुत्र कुणाल का पुत्र तू हुआ है । यह सुनकर राजा बहुमान से रोमांचित हो मस्तक पर हाथ जोड़कर उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगा
हे ज्ञान दिवाकर ! परोपकार परायण, अत्यन्त करुणा-जल के सागर मुनीश्वर ! आपके चरणों को नमस्कार हो। हे करुणानिधि ! दारिद्य रूप भरपूर समुद्र में डूबते हुए जीवों को पार लगाने के