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यिघिसारानुषशन पर
दारिद्र से ढंका हुआ ब्रह्मसेन नामक वणिक् था। उसकी यशोमति नामक स्त्री थी। वह एक समय नार के बाहर गया। वहां उद्यान में भव्यों को धर्म कहते हुए मुनि को देख कर उनको नमन कर हर्षित हुआ सेठ उनके समीप बैठा। ___ मुनि बोले कि हे भव्यों ! जब तक यह जीव हलता चलता है, तब तक आहार लेता है और कर्म उपार्जन करता है । जिससे यह जीव अनन्त दुस्सह दुःख सहन करता है । अतएव सुखेच्छु मनीषि पुरुष ने आहार गृद्धि का त्याग करना चाहिये।
सेठ बोला कि-हे प्रभु ! यह तो अर्थ देखते अशक्य उपदेश है। मुनि बोले कि गृहस्थों के लिये पौषध व्रत है। वहां सर्व से अथवा देश से द्विविध त्रिविध रीति से आहार वर्जन, अंग सत्कार वर्जन, अब्रह्म वर्जन और व्यापार वर्जन करना चाहिये । जब तक . भाग्यशाली श्रावक यह व्रत धारण करता है तब तक वह यति के आचार का पालक माना जाता है ।
यह सुन, इतने में कोई क्षेमकर नामक श्रावक बोला किपौषध नाम के इस व्रत से मुझे काम नहीं। तब सेठ मुनि को नमन कर बोला कि यह श्रावक के कुल में जन्मा हुआ और स्वभाव से भद्रक है, तथापि इसे पौषध पर क्यों विरोध दीखता है ? .
मुनि बोले कि-इस भव से तीसरे भव में कौशांबी नगरी में क्षेमदेव नामक एक वणिक था। तथा वहां जिनदेव और धनदेव नामक महान् ऋद्धिवन्त दो भाई थे। वे उत्तम श्रावक थे। अब जिनदेव कुटुम्ब का भार छोटे भाई को सौंप कर, पौषधशाला में विधिपूर्वक नित्य पौषध करता था । उसे एक दिन पौषध में अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ। तब ज्ञान के उपयोग से जान कर अपने छोटे भाई को कहने लगा। हे वत्स ! तेरा अब केवल दश दिन