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विधिसारानुष्ठान का स्वरूप
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लगे। वे श्रावक भी चिरकाल जिन-प्रवचन की प्रभावना करते हुए गृहि-धर्म का पालन कर सुगति के भाजन हुए। ___इस भांति उत्सर्ग और अपवाद में कुशल बुद्धिवाले, मिथ्यात्व रूप कक्ष को जलानेवाले, धर्म के लक्ष्य वाले, अति चतुर अचलपुर के श्रावक श्री तीर्थकर के तीर्थ की स्वपरहितकारी प्रभावना करने को समर्थ हुए । अतएव हे भव्यों ! तुम उसी में कुशलता धारण करो, जो कि विवेक रूप वृक्ष को बढ़ाने के लिये मेघ समान है।
इस प्रकार उत्सर्ग अपवाद रूप दोनों गुणों में अचलपुर के श्रावक समुदाय की कथा है।
इस प्रकार प्रवचन कुशल का उत्सर्ग-अपवाद रूप तीसरा और चौथा भेद कहा अब विधिसारानुपान रूप पांचवां भेद का वर्णन करने के लिये आधी गाथा कहते हैं। वहइ सइ पक्खवायं विहिसारे सव्वधम्मगुट्ठाणे ।
मूल का अर्थ-विधि वाले सर्व धर्मानुष्ठान में सदैव पक्षपात धारण करते हैं।
टीका का अर्थ-विधिसार याने विधिप्रधान सर्व धर्मानुष्ठान, याने देव गुरु बन्दनादिक में सदैव पक्षपात याने बहुमान धारण करते है-इसका मतलब यह है कि अन्य विधि पालनेवालों का बहुमान करे और स्वयं आवश्यक सामग्री से यथाशक्ति विधि पूर्वक धर्मानुष्ठान में प्रवृत्त हो । सामग्री न हो तो भी विधि आराधने के मनोरथ न छोड़े, इस तरह से भी वह आराधक होता है, ब्रह्मसेन सेठ के समान ।।
. ब्रह्मसेन सेठ की कथा इस प्रकार है। गंगा से सुशोभित नंदीवाली और वृषभ वाली शंभु की मूर्ति के समान यहां वैसी ही उत्तम वाराणसी नामक नगरी है । वहां