________________
१७८
उत्सर्गा-पवाद कुशल का स्वरूप
इस प्रकार ऋषिभद्रपुत्र की कथा पूर्ण हुई। इस प्रकार अर्थशल रूप दसरा भेद कहा। अब उत्सर्गकुशल तथा अपवाद-कुशल नामक तीसरा और चौथा भेद साथ में कहने के लिये शेष आधी गाथा कहते हैं ।
उस्सग्गववायाणं विषयविभागं वियाणाइ ॥ ५३ ।।
मूल का अर्थ-उत्सर्ग और अपवाद के विषय विभाग को जाने। . टीका का अर्थ-जिन प्रवचन में प्रसिद्ध उत्सर्ग व अपवाद के विषय विभाग को याने करण प्रस्ताव को विशेष कर जाने । सारांश यह कि-केवल उत्सर्ग व केवल अपवाद को न पकड़ते अचलपुर के श्रावकों के समान उनका अवसर जाने । क्योंकि कहा है किः-ऊंचे की अपेक्षा से नीचा कहलाता है और नीचे की अपेक्षा से ऊंचा कहलाता है. इस भांति अन्योन्य की अपेक्षा रखते उत्सर्ग और अपवाद दोनों समान है यह जान कर अवसर के अनुसार इन दोनों में स्वल्प व्यय और विशेष लाभ वाली प्रवृत्ति करे।
__ अचलपुर के श्रावकों की कथा इस प्रकार है।
अत्यन्त भद्रशाल (वन) वाले और प्रचुर सुमनस् (देव) वाले कनकाचल के समान अति सुन्दर साल (गढ़) वाली और प्रचुर सुमनस् (सज्जन) वाली अचलपुर नामक नगरी थी। वहां जिन प्रवचन की प्रभावना करने में तत्पर और उत्सर्गापवाद के ज्ञाता बहुत से महर्दिक श्रावक रहते थे। ____वहां कन्ना और बिन्ना नदियों के बीच में बहुत से तापस रहते
थे उनमें एक तापस पादलेप में बहुत होशियार था । वह पग पर लेप लगा कर उसके बल से नित्य पानी पर स्थल के समान