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ऋषिभद्र पुत्र की कथा
अब वहां अतुल भक्ति से आये हुए प्रवर इन्द्रों के नमित और स्वर्ण समान प्रभा वाले वीर स्वामी पधारे ।
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समूह
से
उन जगत्त्राता के चरणों को प्रणाम करने के लिये श्री प्रवचन की प्रभावना पूर्वक ऋषिभद्रपुत्र के साथ वे समस्त श्रावक वहां आये । वे तीन प्रदक्षिणा दे भक्तिपूर्वक भगवान को नमन करके उचित स्थान पर बैठे । तब जगद्गुरु उनको इस प्रकार धर्म सुनाने लगे ।
हे भव्यों ! अति दुर्लभ मनुष्य जन्म पाकर अज्ञान का नाश करने को मल्ल समान प्रवचन में कहे हुए अर्थ की कुशलता में निरन्तर उद्यम करो ।
इस प्रकार धर्म सुन कर वे जगत्प्रभु को ऋषिभद्रपुत्र की कही हुई उक्त सब देवों की स्थिति कहने लगे । तब संशय रूप रज हरने को पवन समान स्वामी बोले कि - हे भद्रों ! मैं भी इसी प्रकार देवस्थिति कहता हूँ। यह सुन कर वे ( श्रावक) श्रुतार्थ में कुशलमति ऋषभद्रपुत्र को खमा कर प्रभु को नमन करके अपने २ घर को आये । ऋषभद्रपुत्र भी प्रभु को वंदना कर, प्रश्न पूछ अपने घर आया और श्रेष्ठ कमल के समान प्रभु भी अन्य स्थलों में भव्यों को सुवासित करने लगे ।
इस प्रकार सम्यक् रीति से ऋषिभद्रपुत्र चिरकाल गृहि-धर्म पालन कर, मासभक्त करके सौधर्म देवलोक में देवता हुआ । वहां अरुणाभ विमान में चार पल्योपम तक सुख भोग कर, वहां से व्यव कर महाविदेह में उत्पन्न हो, प्रवचन में कुशल होकर मुक्ति को जावेगा ।
इस प्रकार हे भव्यों ! ऋषिभद्रपुत्र का चरित्र बराबर सुन कर भवताप हरनेवाले प्रवचन के अर्थों में कुशलबुद्धि होओ।