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भावनामक चौथा भेद का स्वरूप
इस प्रकार अभयघोष का वृत्तान्त सुन कर सदैव गुणवान गुरुओं को औषध-भेषज देने में भव्य जनों ने उद्यत रहना चाहिये । इस प्रकार अभयघोष की कथा पूर्ण हुई ।
इस प्रकार गुरुशुश्रूषक का औषध - भेषज संप्रदान' नामक तीसरा भेद कहा. अब भाव नामक चौथे भेद का वर्णन करने के हेतु शेष आधी गाथा कहते हैं:
त्रत्तए तस्स ॥ ५९ ॥
सह बहुमन्ने गुरु भावं च मूल का अर्थ:-- सदा गुरु का बहुमान रखे और उनके अभिप्राय का अनुसरण करे ।
टीका का अर्थ :-- सदा नित्य उक्त स्वरूपवान गुरु को बहुमान दे याने किं-मन की प्रीति पूर्वक प्रशंसा करे संप्रति राजा के समान, तथा भाव याने कि- चित्त के अभिप्राय के अनुकूल व्यवहार करे याने कि उनका जो अभिमत हो, उसी के अनुसार आचरण करे यह तात्पर्य हैं ।
कहा भी है कि- रोष करने पर प्रणाम करना, स्तुति करना, उनके बल्लभ पर प्रेम करना, उनके द्वेषी पर द्वेष करना, देना, ये अमूल-मूल बिना का वशीकरण मंत्र हैं । संप्रति महाराज का नि दर्शन इस प्रकार है ।
उपकार मानना,
लक्ष्मी से अलकापुरी को भी जीतने वाली उज्जयिनी नामक नगरी थी, वहां बहुत से राजाओं से सेवित संप्रति नामक राजा था। वहां स्थित जीवंतस्वामी की प्रतिमा को वंदन करने के लिये किसी समय भवतरु को तोड़ने में हाथी समान सुहरित नामक आचार्य सपरिवार पधारे ।
तब वहां रथयात्रा शुरू हुई, उसमें चारों प्रकार के बाजों और तमाशों से लोक हर्षित होने लगे, साथ ही स्थान २ पर