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गुरु भक्ति करने पर
गुरु के लक्षण इस प्रकार हैं___ धर्म का ज्ञाता, धर्म का कर्ता, नित्य धर्म का प्रवर्तक और जीवों को धर्म-शास्त्र का उपदेश देने वाला हो, वह गुरु कहलाता है । गुरु के बदले गुरुजन कहा यह अधिकता बताने के लिये, अतः जो कोई पूर्वोत गुरु लक्षणों से लक्षित हों उन सबको गुरु-शब्द से ग्रहण करना चाहिये। जिससे वैसे गुरुजन की शुश्रूषा याने पर्युपासना करता हुआ गुरु-शुश्रूषक माना जाता है । वह चार प्रकार का है, यह गाथा का अक्षरार्थ है।
भावार्थ तो सूत्रकार ही बताते हैं, वहां सेवा रूप प्रथम भेद का आधी गाथा द्वारा वर्णन करते हैं
सेवइ कालंमि गुरु अकुणंतोज्ज्ञाणजोग वाधार्य ।
मूल का अर्थ-- गुरु के ध्यान-योग में बाधा न देते समय पर उनकी सेवा करे। ___टीका का अर्थ-- काले-अवसर पर पूर्वोक्त स्वरूप वाले गुरु की सेवा करे अर्थात् उनकी पर्युपासना करे ( किस प्रकार सो, कहते हैं)। धमे-ध्यानादि ध्यान तथा प्रत्युपेक्षणा और आवश्यक आदि योग में व्याघात याने अंतराय न करते । जीर्ण सेठ के समान
जीर्ण सेठ की कथा इस प्रकार है-- मनोहर जनशालिनी वैशाली नामक नगरी थी, वहां जिनदत्त नामक निमल बुद्धिमान श्रावक था। वह सदैव जिन के चरण कमल की सेवा करने में भ्रमर समान रहता था और सेठ की पदवी से रहित हो गया था, इससे जीणे सेठ के नाम से प्रसिद्ध हो गया था। वहां बाहिर के देवालय में श्री वीर प्रभु एक समय छद्मस्थपन में काउस्सग्ग में खड़े थे।