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गुरु सेवा पर
होते हुए भी चारित्र-धन के खूब संग्रह करने वाले होते हैं तथा समस्त जीवों की रक्षा करने में भारी करुणावान होते भी प्रमादरूप हाथी का कुभस्थल विदीर्ण करने में सिह समान होते हैं।
उनको नीचे लिखी उपमाएँ दी जाती हैं:-कांसा, शंख, जीव, गगन, वायु, शरद ऋतु का पानी, कमल-पत्र, कूर्म, विहग, खड्गि (गेंडा), भारंड पक्षी, हाथी, बैल, सिंह, मेरु-पर्वत, समुद्र, चन्द्र, सूर्य, स्वर्ण, वसुन्धरा और प्रज्वलित अग्नि के समान. वे माने जाते हैं, इत्यादिक दृष्टांतों से जिनागम में मुनिवरों का वर्णन किया है । उनका भाव पूर्वक गुण वर्णन करने से पाप दूर भागते
. मनुष्य भव, ज्ञानी गुरु और उत्तम धर्म. यह सामग्री मिलना दुर्लभ है, इसलिये तू अपने हित को जान । ऐसे शुभगुरु, भाग्यशाली पुरुषों ही को दृष्टिगोचर होते हैं और वे ही ऐसे गुरुओं का कान को सुख देने वाला वचनामृत पीते हैं । ऐसे महा मुनि का उपदेश रूपी रसायन नहीं करने से निधान मिलते हुए भी उसको छोड़ देने से जैसे पश्चाताप होता है, वैसा पश्चाताप होता है।
इस प्रकार बोलकर उसने बहुत से लोगों को जिन - धर्म में स्थिर किये। अब विजय नामक एक श्रेश्री पुत्र ऐसा बोलता था:___ ये मुनि पवन से फरकते वस्त्र समान चंचल मन को किस प्रकार स्थिर रख सकते हैं, वैसे ही अपने अपने विषयों में दौड़ती हुई इन्द्रियों को किस प्रकार रोक सकते हैं ?
दुखी जीवों को तो मार ही डालना चाहिये, क्योंकि वे मारे जाने से यहां अपना कर्म भोगकर सुगति के भाजन हो जाते हैं। जो अप्रमाद से मोक्ष प्राप्ति कही जाती है, वह ज्वर हरने के लिये सर्प के मस्तक पर स्थित मणि लेने के उपदेश समान है।