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औषध भेषज संप्रदान का स्वरूप
चरित्र सुनकर हे जनों ! तुम दर्शन ज्ञान चारित्र संपन्न गुरु महाराज के गुणों का वर्णन करते रहो ।
__ इस प्रकार पद्मशेखर राजा की कथा पूर्ण हुई। .
इस प्रकार गुरुशुश्र षक लक्षण का कारण नामक दूसरा भेद कहा । अब औषध भेषज संप्रणाम-संप्रदान नामक तीसरा भेद कहने के लिये आधी गाथा कहते हैं:
जोसह-सजाई सओ य परओ य संपणामेई ।
मूल का अर्थः-औषध-भेषज खुद व दूसरे से भी दिलावे ।
टीका का अर्थः-केवल एक द्रव्य रूप अथवा लेप करने को उपयोग में आने वाली सो औषध और बहुत से द्रव्यों के मिश्रण से बनी हुई अथवा पेट में खाने की सो भेषज - आदि शब्द से अन्य भी संयम में सहायक वस्तुएँ गुरु महाराज को स्वयं देकर के च दूसरे से दिला करके भली प्रकार पहुंचावे । श्री ऋषभदेव स्वामी के जीव अभयघोष के समान । कहा भी है कि
अन्नपान, नाना भांति के औषध, धर्म ध्वज ( रजोहरण ), कंबल, वस्त्र, पात्र, नाना प्रकार के उपाश्रय, नाना प्रकार के दंडादि धर्मोपकरण वैसे ही धर्म के हेतु अन्य भी जो कुछ पुस्तक, पीठ
आदि की आवश्यकता हो, वह सब दान देने में विचक्षण जनों ने मोक्षार्थी भिक्षुओं को देना चाहिये। .
और भी कहा है कि- मन, वचन और शरीर को वश में रखने वाले मुनियों को जो औषधादि देता है व पवित्र भाव वाला पुरुष भवोभव निरोगी होता है ।
अभयघोष की कथा इस प्रकार है।