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पद्मशेखर राजा का दृष्टांत
सह वन्नणाई करणा अन्नेवि पवत्तए तत्थ ।। ५० ॥
मूल का अर्थ – सदा स्वतः वर्णन आदि करके दूसरे को भी उसमें प्रवृत्त करता है ।
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टीका का अर्थ- सदैव वर्णवाद करके याने कि नित्य सद्गुणवर्णन करके अन्य प्रमादियों को भी पद्मशेखर महाराजा के समान गुरु-सेवा में प्रवृत्त करे ।
पद्मशेखर महाराज की कथा इस प्रकार है
समुद्र का जल पुरुषोत्तम ( श्रीकृष्ण ) का शयनस्थल है, श्रेष्ठ रत्नों युक्त है, वैसे ही पृथ्वीपुर नामक नगर भी पुरुषोत्तम ( उत्तम पुरुषों ) का शयन ( निवास स्थान ) और रत्न युक्त होते हुए क्षार गुण रहित था । वहां न्यायवान्, व्यसन रहित और महादेव के समान होते भी जड़ संग रहित पद्मशेखर नामक राजा था ।
वह बाल्यावस्था ही से विचार पूर्वक भाव से जिन-धर्म अंगीकृत कर, अन्य राजा तथा सरदारों के आगे जिन-धर्म की प्ररूपणा करता था । वह जीवदया को प्रशंसा करता, प्रमाद रहित हो मोक्ष का वर्णन करता तथा बहुमान से नित्य बारम्बार गुरु का इस प्रकार वर्णन करता ।
गुरु- महाराज क्षमावान्, जितेन्द्रिय, शांत, उपशमवन्त, राग रोष रहित, परनिंदा - वर्जक और अप्रमत्त होते हैं, वे उपशम रूप शीतल जल के प्रवाह से क्रोध रूप अग्नि को उपशमन करते हैं, और मजबूत जड़ डालकर उगे हुए भव रूप झाड़ को नाश करने के लिये दावाग्नि समान होते हैं ।
वे काम को जीतने वाले हैं, तथापि प्रसिद्ध सिद्धि रूप स्त्री के विलास सुख में लीन होते हैं। वैसे ही सर्व-संग के त्यागी