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जिनवचन रुचि पर
प्रथम संघयण, प्रथम संस्थान, निर्माण नाम, आंतप नाम, नरत्रिक, सुरत्रिक, पराघात नाम, उच्छ्वास नाम, अगुरुलघु नाम, उद्योत नाम, पांच शरीर, तीन अंगोपांग. इस प्रकार ४२ पुण्य प्रकृति है। यह पुण्य तत्त्व कहा। __ स्थावर दशक, नरकत्रिक, शेष संघयण, शेष जाति, शेष संस्थान, तिर्यद्विक, उपघात नाम, अशुभ विहायोगति, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, ज्ञानावरण पांच, अंतराय पांच, दर्शनावरण नौ, नीचगोत्र, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व मोहनीय और पञ्चीस कषाय. ये ८२ पाप प्रकृति हैं । यह पाप तत्त्व कहा ।
जीव में जिससे समय-समय भव भ्रमण हेतु कर्म का आश्रवआगमन हो याने भरे सो आश्रव. उसके ४२ भेद हैं--
पांच इन्द्रिय, पांच अव्रत, तीन योग, चार कषाय और २५ क्रिया. इस प्रकार ४२ आश्रव हैं। ___ श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्शन ये पांच इन्द्रियां हैं, वैसे ही जीवहिंसा, मृषा, अदत्त, मैथुन और परिग्रह. ये पांच अव्रत हैं। अप्रशस्त मन, वचन, तन ये तीन योग हैं, क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषाय हैं और पचीस क्रियाएँ वे ये हैं
कायिकी, अधिकरणिकी, प्राषिकी, पारितापनिकी, प्राणातिपातिकी, आरंभिकी, परिग्रहिकी, माया प्रत्ययिकी, मिथ्यादर्शन प्रत्ययिकी, अप्रत्याख्यानिको, दृष्टिकी, पृष्टिकी, प्रातीत्यकी, सामंतोपनिपातनिकी, नैशस्त्रिकी, स्वाहस्तिकी, आज्ञापनिकी, विदारणिकी, अनाभोगिकी, अनवकांक्षाप्रत्ययिकी, अन्याप्रयोगिकी, सामुदानिकी, प्रेमिकी, द्वेषिकी तथा इपिथिकी।
इनका संक्षेप में यह अर्थ है-- अयतना वाले शरीर से होवे वह कायिकी (१), पशुवध