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ऋजुव्यवहार लक्षण के तीसरे भेद का स्वरूप
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इस प्रकार ऋजुव्यवहार में अवंचक क्रिया रूप दूसरा भेद कहा, अब भाविअपाय प्रकाशन स्वरूप तीसरा भेद कहते हैं। अशुद्र व्यवहार करने वाले को संकट आते रहते हैं, इस प्रकार भावी अपायों का जो प्रकाश करे अर्थात् अपने आश्रयी को ऐसा सिखावे कि- हे भोले ! चोरी आदि पाप जो कि-यहां व परभव में अनर्थकारी है, वह नहीं करना चाहिये और भद्रसेठ के समान अपना पुत्र अन्याय से चलता हो, तो उसकी भी उपेक्षा करना चाहिये।
. भद्र सेठ को कथा इस प्रकार है
जैसे इन्द्र का शरीर सुवर्ण (सुन्दर वर्ण से) संगत और सुगत है, वैसे ही सुवणे संगत ( सोने से भरपूर) और सुगत (आबाद) भहिलपुर नामक नगर था, वहां उत्तम न्याय रूप कुञ्ज में केशरी सिंह समान केशरी नामक राजा था। __ वहां भद्र हाथी के समान दान से उल्लसित भद्र नामक सेठ था, उसका धनलुब्ध और ठगाई में प्रवीण धन नामक पुत्र था। वे पिता-पुत्र दोनों मिलकर एक समय सकरुण (करुण वृक्ष सहित)
और पांडव सैन्य के समान सअर्जुन (अर्जुन वृक्ष सहित) उद्यान में गये । वहां उन्होंने सुप्रतिष्ठित मेरु पर्वत के समान क्षमा के भार को धारण करने वाले, दया रूप उदक श्राव करने वाले और बड़े कुल में उत्पन्न हुए सुप्रति नामक मुनि को देखे ।
वे मस्तक पर हाथ जोड़ कर, उक्त मुनि को प्रणाम करके उचित स्थान पर बैठ गये, तब वे मुनि धर्म कहने लगे- .
मरु-मंडल में कमल से भरे हुए तालाब के समान तथा अंधकार में रत्न के दीपक के समान यह दुर्लभ मनुष्य भव जान कर हे भव्यों ! तुम यथाशक्ति जिन धर्म करो।