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भावी अपाय प्रकाशन पर
... यह सुत पिता पुत्र हर्षित हो गृहि धर्म अंगीकृत कर जयकारी मुनि के चरणों में नमन करके अपने घर आये । ___ अब भाविभद्र मन वाला भद्र सेठ शुद्ध व्यवहार रखता हुआ निर्मल गृहि धर्म पालने लगा। किन्तु उसका पुत्र धन, नित्य धन में अति लुब्ध होने से कूट क्रय-विक्रय और कूट तौल-माप से व्यापार करता था, वह अपायों की परवाह न करके चोरों का लाया हुआ माल भी चुपचाप ले लेता था, यह जानकर उसके पिता ने उसको कोमल वचनों से इस प्रकार कहा कि- हे वत्स! अन्याय से द्रव्य प्राप्त करना पोछे से अनिष्ट को और अपथ्य भोजन के समान दोष परिपूर्ण हो जाता है, ऐसा सज्जन कहते हैं। __ अन्याय से उपार्जन किया हुआ द्रव्य अशुद्ध है, अशुद्ध द्रव्य से आहार भी अशुद्ध होता है, उससे शरीर भी अशुद्ध रहता है
और अशुद्ध देह से किसी समय जो कुछ शुभ कृत्य कभी किया जाता है वह ऊसर भूमि में बोये हुए बीज के समान सफल नहीं होता तथा अन्याय मार्ग में चलते हुए लोगों को होने वाले अपाय विचारों से प्रथम तो जगत में काजल से भी काला अपयश फलता है और यहां वे बन्दी-गृह में पड़ते हैं, वध बंध पाते हैं, कभी हाथ काटे जाते हैं और परलोक में भी वे दारुण नरकादिक दुःख की पीड़ा भोगते हैं।
धन बिजली की दमक के समान चञ्चल है और वह जल, अग्नि तथा राजाओं के अधीन है, यह जानकर यहां कोन अन्याय करने को तैयार होवे ? हे वत्स ! अन्याय से उपार्जित किया हुआ धन भी अंत में अत्यन्त विरस हो जाता है और इस दुर्जय संसार का मूल बन जाता है । अति लोभ रूप स्नेह से भरे हुए अन्याय