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हरिनन्दी का दृष्टांत
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हाय हाय ! मैंने धन में लुब्ध होकर उस बेचारी भोली को व्यर्थ ठगा, क्योंकि वह दूसरों ने खाया और पाप तो मुझे ही लगा । हाय, धिक्कार ! अभी तक परवंचन में मन रखकर मैंने अपनी आत्मा को महान् दुःख वाली नरकाग्नि का इंधन क्यों बनाया? - यह सोचकर वह कुछ दूर गया, इतने में मार्ग में जाते हुए एक मुनि को देखकर वह इस प्रकार बोला- हे भगवन् ! क्षणभर ठहरिये, मुनि बोले कि-हम अपने काम को जाते हैं, सेठ बोला कि-हे स्वामिन् ! दूसरे कौन पराये काम को भटकते हैं।
तब वे अतिशय ज्ञानी साधु बोले कि-तू ही परकार्य से भटकना है, तब वह मर्म से अटका हो, उस भांति उसी वचन से प्रतिबुद्ध हो गया । वह हर्षित हो, मुनि को वंदन कर के पूछने लगा कि-हे भगवन् ! आप कहां रहते हो ? मुनि बोले कि-यहां के उद्यान में।
पश्चात मुनि का कहा हुआ धर्म सुनकर वह विनन्ती करने लगा कि-हे प्रभु ! मैं आपसे दीक्षा लूगा तथापि स्वजन वर्ग की आज्ञा लाता हूँ। यह कह मुनि को नमन करके घर आ, स्वजनों को एकत्रित कर कहने लगा कि, यहां विशेष लाभ नहीं मिलता, इसलिये दिग्यात्रा को जाता हूँ। . ___वहां दो सार्थवाह हैं-एक अपने पांच रत्न देता है, इच्छित नगर को ले जाता है, और पहिले उधार दिया हुआ मांगता नहीं । दूसरा कुछ भी देता नहीं, इच्छित नगर को ले जाता नहीं, पूर्व संचित ले लेता है, अतः बोलो, किसके साथ जाऊ ।