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जिनवचन रुचि पर
परिहारविशुद्धिकल्प, चारित्र, धृति, संहनन, विशिष्ट तप श्रत और सत्ववान् नव मुनियों को होता है। उपशम श्रेणी वाला अथवा क्षपकरेणी वाला जब लोभ के अणुओं को वेदता हो, तब वह सूक्ष्म संपराय चारित्र कहलाता है, वह यथाख्यात से कुछ न्यून है ।
छद्मस्थ तथा केवली का कषाय रहित चारित्र यथाख्यात है। वह अनुक्रम से उपशांतमोह, क्षीणमोह, सयोगी तथा अयोगी गुणस्थान में होता है। - क्षाति, माई व, आर्जव, मुक्ति, तप, संयम, सत्य, शौच, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य । इन दस प्रकार का यतिधर्म है।
संवर-तत्त्व कहा, अब निर्जरा-तत्त्व कहते हैं
कड़ी धूप से तालाब के जल का शोषण होता है, उसी प्रकार पूर्व संचित कर्म जिससे निर्जरे, वह निर्जरा । वह बारह प्रकार की है। अनशन, उनोदरी, वृत्ति संक्षेप, रसत्याग, कायक्लेश और सलीनता. ये बाह्यतप है । प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और उत्सर्ग ये अभ्यंतरतप हैं। निर्जरा-तत्व कहा, अब बंध-तत्व कहते हैं--
जैसे रास्ते में रखे हुए घी से लिप्त डब्बे ऊपर रज लिपट जाने से मजबूत बंध जाते हैं, वैसे ही राग द्वष युक्त जीव को कर्म का बंध होता है वह चार प्रकार का है। स्पृष्ट, बद्ध, निधत्त और निकाचित, अथवा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से चार प्रकार का बंध है।
बंध-तत्त्व कहा, अब मोक्ष-तत्त्व कहते हैं--
जैसे अनादि संयोग से संयुक्त रहे हुए कंचन और उपल का प्रबल अग्नि प्रयोगों से अत्यन्त वियोग होता है, वैसे ही जीव