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जिनवचन रुचि पर
प्राप्त हुए वे अतीर्थ सिद्ध हैं। अपने आप बुद्ध हो सिद्ध होवे वे स्वयंसिद्ध. वैसे ही प्रत्येकबुद्ध सिद्ध कहलाते हैं । स्वयंबुद्ध दो प्रकार के हैं - तीर्थंकर तथा अन्य ।
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तीर्थकर के अतिरिक्त स्वयंबुद्धों की बोधि, उपधि, श्रुत और लिंग जानने के हैं, वहां उनको बोधि जातिस्मरणादिक से होती है ।
मुखवस्त्रिका, रजोहरण, तीन कल्प, सात पात्र के सामान, इस प्रकार स्वयंबुद्ध साधुओं को बारह प्रकार की उपधि होती है उनको पूर्वाधीत श्रुत हो वा न हो और जो समीप में देवता हो तो उनको लिंग देते हैं और न हो तो गुरु लिंग देते हैं ।
जो स्वयंबुद्ध अकेला विचरने को समर्थ हो वा वैसी उसकी इच्छा हो तो वैसा करता है अन्यथा नियम से गच्छ में वास करता है ।
प्रत्येक बुद्ध साधुओं को वृषभादिक देखने से बोधि होती है और उनको जघन्य से मुखवस्त्रिका और रजोहरण. ये दो उपधि होती हैं ।
उत्कृष्ट से उनको मुखवस्त्रिका रजोहरण व सात पात्र के उपकरण इस तरह नव उपधि होती है और उनको पूर्वभव पठित श्रुत इस प्रकार होते हैं । जघन्य से उनको ग्यारह अंग होते हैं और उत्कृष्ट से देश से न्यूनदशपूर्व होते हैं ।
प्रत्येक बुद्ध को लिंग तो देवता देते हैं अथवा वह लिंग रहित भी होता है और वह अकेला ही विचरता है, गच्छवास में नहीं जाता ।
इस प्रकार छः भेद हुए, शेष भेद कहते हैं-
बुद्धबोधित सिद्ध, नपुंसकलिंग सिद्ध, स्त्रीलिंग सिद्ध, पुरुषलिंग सिद्ध, गृहिलिंग सिद्ध, अन्यलिंग सिद्ध, और