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जयंती श्राविका का दृष्टांत
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लिंगस्थ को भी उक्त शय्यातर वर्जनीय है, उस को त्याग करने वाले अथवा भोगने वाले युक्त अथवा अयुक्त सबको वह वर्जनीय है, वहां रसापण का दृष्टान्त है। ( शय्यातर भोगने में ये दोष हैं ) तीर्थकर का निषेध है, अज्ञातपन नहीं रहता उद्गम ( आधाकर्म) की शुद्धि नहीं रहती, निस्पृहता नहीं रहती, लघुता होती है, वसतिदुर्लभ हो जाती है और वसति का व्युच्छेद होता है।
प्रथम तथा अंतिम तीर्थकर के अतिरिक्त शेष तीर्थंकरों ने तथा महाविदेह के तीथंकरों ने भी लेश से किसी कारणवश आधाकर्मी तो भोगा है, किन्तु सागरिक पिंड याने शय्यातरपिंड नहीं भोगा।
गच्छ बड़ा होवे तो प्रथमालिका-नवकारशी-पानी आदि लेने जावे तब तथा स्वाध्याय करने की शीघ्रता हो तब उद्गगमादिक अन्य दोष किये जा सकते हैं। दो प्रकार की रुग्णावस्था में, निमंत्रण में, दुर्लभ द्रव्य में, अशिव ( उपद्रव युक्त काल ) में, अवमोदरिका (दुर्भिक्ष ) में, प्रदेष में और भय में शय्यातर के आहार का ग्रहण अनुज्ञात है।
शय्यातरपिंड कौन २ सी वस्तु है सो गिनाते हैं अशन, पान, खादिम, स्वादिम ये चार तथा पादपोंछनक, वस्त्र, पात्र, कम्बल, सूचि, क्षुरप्र, कर्णशोधनिका और नखरदनिका ( नेण) ये शय्यातरपिंड हैं।
किन्तु तृण, डगल, गोबर, मल्लक (शराव), शय्या, संस्तारक, पीठ, लेप आदि शय्यातरपिंड नहीं माने जाते, वैसे ही उपधि (उपकरण ) सहित शिष्य भी शय्यातर नहीं।
शेष स्थित-कल्प प्रसिद्ध हैं।