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परुपवचनाभियोग वर्जन पर
तदनन्तर मुनिश्वरों को प्राशुक एषणीय आहार वहोराना तथा साधर्मी भाइयों का वात्सल्य करना, व दीनादिक के ऊपर अनुकंपा करना, ( अर्थात् जो दीन दुःखी उस समय उपस्थित हों उनको भी अन्न पानी देना)
पश्चात् बहुबीज और अनन्तकाय वर्जित भोजन करना, उसके बाद चैत्यवंदन करके गुरु को वन्दना कर दिवसचरिम का पञ्चक्खाण ले लेना, तदनंतर कुशल बुद्धिमान मित्रों के साथ शास्त्र के रहस्यों का विचार करना, इस प्रकार मुख्यवृत्ति से एक ही समय भोजन करना परन्तु कदाचित् एक भक्त नहीं किया जा सके तो दिन के आठवे भाग में खा लेना।
संध्या होने पर गृहस्थित प्रतिमाओं की पूजा व वंदन करके आवश्यक कर एकाग्र चित्त से स्वाध्याय करना । पश्चात घर आकर अपने कुटुम्ब परिवार को उचित धर्म सुनाना व बने जहां तक विषय से विरक्त ही रहना अन्यथा पर्वदिवसों में तो शील पालन करना ही।
पश्चात् चतुःशरण गमनादि करक सावध का त्याग कर गठसी लेकर नमस्कार मंत्र का स्मरण करते हुए कुछ देर निद्रा लेना । नींद खुलते ही विषय सुख को विषम विष के समान विचारते हुए नथा स्वर्ग और शिवपुर जाते हुए रथ समान मनोरथ करना।
मुझे भवो भव श्री अरिहंत देव हों, सम्यग ज्ञान व चारित्र संपन्न सुसाधु गुरु हों व जिनभाषित तत्व हो। मैं श्रावक के गृह में जिनधर्म को वासना वाला चाकर होऊ सो अच्छा है, परन्तु जिनधर्म से रहित होकर कभी चक्रवर्ती राजा भी न होऊं।
मैं मल मलीन शरीर पर पुराने, मैले कपड़े धारण कर सर्व संग त्याग करके मधुकर के समान गोचरी करके मुनि का आचार