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गुणवंत लक्षण का पांचवा भेद जिनवचन रुचि का स्वरूप ११९
अनभिनिवेशरूप चौथा भेद कहा, अब जिनवचनरुचि रूप पांचवा भेद कहते हैं।
सवष-करयेसु इच्छा-होइ रुई सद्दहाणसंजुत्ता । ए ईई विणा कत्तो सुद्धी सम्मत्तरयणस्स ।। ४६ ।। मूल का अर्थ-सुनने में और करने में श्रद्धापूर्वक इच्छा सो रुचि है वैसी रुचि बिना सम्यक्त्व-रत्न की शुद्धि कहां से हो !
टीका का अर्थ-श्रवण याने सुनना और करण याने अनुष्ठान इन दोनों में इच्छा अर्थात् तीन अभिलाषा सो रुचि है वह भी श्रद्धानसंयुक्त याने प्रतीति सहित होना चाहिये। जयंति श्राविका के समान ।
इस रुचि की प्रधानता बताने के हेतु कहते हैं कि- इस दो रूपवाली रुचि के अभाव से सम्यक्त्व-रत्न की शुद्धि किससे हो ? सारांश यह कि-किसी से भी नहीं होती क्योंकि-सम्यक्त्व सुश्रूषा और धर्मराग रूप ही है, क्योंकि ये दोनों सम्यक्त्व के साथ प्रकट होने से लिंग रूप से प्रसिद्ध है।
कहा भी है किसुश्रूषा, धर्मराग और यथाशक्ति गुरु-देव के वैयावृत्य में नियम ये सम्यग दृष्टि के लिंग हैं । इस प्रकार पांचवें गुण की व्याख्या है। अन्य पुनः पांच गुण इस प्रकार कहते हैं।
सूत्ररूची अर्थरुचि, करणरुचि, अनभिनिवेशरुचि और पांचवीं अनिश्रितोत्साहता इन पांच गुणों से गुणवान होता है।
यहां भी सूत्ररुचि वाला पठनादिक स्वाध्याय में प्रवृत्ति करता है, अर्थरुचिवाला गुणीजनों का अभ्युत्थानादि विनय करता