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महाशतक श्रावक का दृष्टांत
उत्तम गुणवान् श्रावकों को परुषवचन बोलना अनुचित है, अनशन में तो विशेष कर पर-पीड़ाकारी वचन कदापि न बोलना चाहिये, अतः तू अपने दुर्भाषण का प्रायश्चित ले । तब गौतमस्वामी उक्त बात स्वीकार करके वहां आये। उनके वहां आकर प्रभु का संदेश कहने पर महाशतक ने वैराग्य पाकर गौतमस्वामी को वन्दना करके उक्त अतिचार की आलोचना की।
पश्चात् उसने प्रायश्चित स्वीकार किया, तब गौतमस्वामी वहां से प्रभु के पास आये। तत्पश्चात् महाशतक समाधिस्थ हो, वीर प्रभु के चरण कमल को स्मरण करता हुआ साठ भक्त का छेदन कर, विधी पूर्वक मर कर, सौधर्म देवलोकान्तर्गत अरुणाभ विमान में चार पल्योपम के आयुष्य से देवता हुआ । वहां से च्यवन कर महाविदेह में जन्म ले सुन्दर देह प्राप्त कर चारित्र लेकर महाशतक का जीव अपरुषभाषी रहकर मुक्ति पावेगा।
इस भांति महाशतक के परुष वाक्य बोलने पर प्रभु ने गौतम गणधर के द्वारा उससे आलोचना कराई । यह स्पष्टतः समझ कर हे निर्मल शीलवान् पुरुषों ! तुम उस कारण से अमृत समान मधुर और संगत ( उचित ) वचन बोलो।
इस प्रकार महाशतक का वृत्तान्त है। परुष वचन से आज्ञा न देना, यह छट्ठा शील कहा, उसके पूर्ण होने पर भाव श्रावक का शीलवान् पन रूप दूसरा लक्षण समाप्त हुआ, अब गुणवान पन रूप तीसरा लक्षण कहने के संबंध में गाथा कहते हैं--
जइवि गुणा बहुरूवा तहावि पंचहि गुणेहिं गुणवंतो। इह मुणिवरेहिं भणिओ सरूवमेसि निसामेहि ॥४२॥