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अनभिनिवेश पर
गीतार्थ भाषितको अर्थात् बहुश्रुत कथन को यथार्थ रीति से स्त्रीकृत किया है, क्योंकि-मोह के उत्कर्ष का अभाव से कामह नहीं रहता, क्योंकि कहा है कि-मोह के उत्कर्ष का अभाव होने से किसी भी विषय में स्वाग्रह नहीं रहता उत्कर्ष दूर करने का साधन गुणवान का परतंत्र रहना है सारांश यह है कि वैसा पुरुष तीर्थंकर गणधर वा गुरु का उपदेश यथावत् प्रतिपादन करता है श्रावस्ती के श्रावक समुदाय के समान ।
उसकी वार्त्ता इस प्रकार है ।
बहुशस्य (प्रशंसा के योग्य ) नेस्ती के दुकान के समान बहुशस्य अन्नादि से संपन्न श्रावस्ती नामक नगरी थी वहां शंख के समान उज्जवल गुणवान् शंख नामक श्र ेष्ठ श्रावक था । उसकी जिनेश्वर के चरण रूप उत्पलं की सेवा करने वाली उत्पला नामक थी वहां अन्य भी बहुत से वैर विवाद रहित श्रावक निवास करते थे ।
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अब वहां पधारे हुए वीरजिन को नमन करके आता हुआ निस्पृह शंख अन्य श्रावकों को कहने लगा कि - आज विपुल अशनपान तैयार कराओ उसे जीमकर हम भलीभांति पक्खी का पौषध करेंगे।
वे सब भी ऐसा ही कहकर अपने २ घर गये पश्चात् शंख ने विचार किया कि मुझे तो अशन पान खाने के लिए न जाकर अलंकार शस्त्र तथा फूल का त्याग कर ब्रह्मचर्य धारण करके पौधशाला में पौषध लेकर अकेले रहना ( विशेष पसन्द है )
यह सोच उत्पला को पूछकर शंख ने पौषध लिया इधर वे सकल श्रावक अशनादिक तैयार कराने लगे। वे कहने लगे किहे भद्रो ! शंख ने कहा था कि भोजन करके हम पाक्षिक पौषध लेंगे ।