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भावश्रावक का तीसरा लक्षण गुणवान् पन का स्वरूप
मूल का अर्थ--गुण यद्यपि बहुत प्रकार के हैं तो भी यहां मुनीश्वरों ने पांच गुणों से गुणवान् कहा है, उनका स्वरूप ( हे शिष्य !) तू सुन !
टीका का अर्थ-यद्यपि यह पद अभ्युपगमार्थ है, जिससे यह अर्थ होता है कि हम स्वीकार करते हैं कि-गुण बहुरूप अर्थात् बहुत प्रकार के औदार्य, धैर्य, गांभीर्य, प्रियंवदत्व आदि हैं, तथापि यहां भाव-श्रावक के विचार में गीतार्थों ने पांच गुणों से गुणवान माना है, उनका स्वरूप अर्थात् वास्तविक तत्त्व सुन यहां सुन यह क्रियापद शिष्य को जागृत करने के लिये है जिससे यह बताया गया है कि-प्रमादी शिष्य को प्रेरणा करके सुनाना स्वरूप कहते हैंसज्झाए' करणमि य विणयांम य निच्चमेव उज्जुत्तो । सव्वत्थणभिनिवेसो वहह रूई सुटठु जिणवयण ॥ ४३ ।।
मूल का अर्थ- स्वाध्याय में, क्रियानुष्ठान में और विनय में नित्य उद्य क्त रहे तथा सर्वत्र सर्व विषयों में कदाग्रह रहित रहे
और जिनागम में रुचि रखे। शोभन अध्ययन सो स्वाध्याय अथवा स्व याने आत्मा उसके द्वारा अध्याय सो स्वाध्याय, उसमें नित्य उद्युक्त रहे, तथा करण अर्थात् अनुष्ठान में और विनय अर्थात् गुरु आदि की ओर अभ्युत्थान आदि करने में नित्य - सदा उद्यक्त याने प्रयत्नवान् रहे इन वाक्यों को तीनों में जोडने से तीन गुण हुए। ___ तथा सर्वत्र इस भव के और परभव के प्रयोजनों में अनभिनिवेश अर्थात् कदाग्रह रहित होकर समझदार होना चौथा गुण है और जिन वचन अर्थात् सर्वज्ञ प्रणीत आगम में सुष्ठु