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मित्रसेन का दृष्टांत
निश्चयतः रागाग्नि को उदीरते हैं अर्थात् प्रज्वलित करते हैं, अतः उनको न बोले । क्योंकि कहा है कि-जिसके सुनने से हृदय में कामाग्नि जल उठे, वैसी कथा साधु अथवा श्रावक ने नहीं कहना चाहिये।
"रागाग्नि को प्रदीप्त करे" यह उपलक्षण रूप है, जिससे किसी २. को द्वेषाग्नि भी प्रदीप्त करते हैं, अतएव मित्रसेन के समान अनर्थदायक सविकार वचन नहीं बोलना चाहिये।
मित्रसेन की कथा यह हैदुश्मनों से जहां न लड़ा जा सके, ऐसी अयोध्या नगरी में धर्म कार्य में तत्पर जयचंद्र नामक राजा था । उसकी मनोहर दिखाव वाली चारुदशेना नामक रानी थी, उनका आंख को- चंद्र समान और संपूर्ण पुण्यशाली चन्द्र नामक पुत्र था ।
उस चन्द्रकुमार का श्येन पुरोहित का पुत्र मित्रसेन नामक मित्र था, वह खूब शृगार सजाता व केलि कुतूहल ( हंसी दिल्लगी) का शौकीन था । एक समय उस नगर के उद्यान में दुयान रूप इंधन जलाने में अग्नि समान व भूत भविष्य के ज्ञाता युगंधर नामक आचार्य पधारे ।
उनको नमन करने के हेतु अत्यन्त आनंद से रोमांचित हुआ राजा, मित्र व पुत्र के साथ वहां गया । वह पवित्र बुद्धि राजा उक्त मुनीश्वर का अनुपम रूप देखकर विस्मय से विकसित नेत्र हो, उनको इस प्रकार पूछने लगा
हे पूज्य ! आपने ऐसा राज्य वैभव भोगने के योग्य स्वरूप होते हुए किस वैराग्य से ऐसा दुष्कर व्रत धारण किया है ? गुरु बोले कि हे राजन् ! मैंने एक नित्य भरा हुआ व सदैव युक्त होकर चलता हुआ भव नाम का अरघट्ट देखा।