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बंधुमती का दृष्टांत
उसको शूली से विदा हुआ देखा. तब उसने बहुत विलाप कर, आंसुओं से नेत्र भर, दुःखित होते हुए उसका मृतकार्य किया ।
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इतने में वहां सुयश नामक चतुज्ञोनी मुनीश्वर का आगमन हुआ, उनको नमन करने के हेतु सेठ वहां आया, तब वे उसे इस भांति धर्म कहने लगे कि हे भव्यो ! तुम उद्भट वेष का वजेन करो, परुषवाणी को त्याग दो और भव स्वरूप को विचारो, जिससे कि दुःख न पाओ ।
यह सुन वैराग्य को प्राप्त हो गुरु को नमन करके पूछने लगा कि- हे भगवन् ! मेरे जामाता व पुत्री ने पूर्व में कौनसा दुष्कृत किया है ? गुरु बोले कि - मनोहर शालिग्राम में एक स्त्री थी, वह अटवी (वन) के समान ' बहुमृत बालका थी, याने उसके बहुत से पुत्र मर गये थे तथा वह दरिद्र व विधवा थी ।
वह स्त्री अपने उदर पोषण के हेतु नित्य श्रीमंतों के घर काम करती थी व उसका पुत्र बछड़े चराता था ।
वह एक समय पुत्र के लिये सीके में भोजन रखकर किसी के घर काम करने गई, वहां उक्त घर वाले का जामाता आ गया जिससे उसने पहिले तो उसके तर्पण स्नान आदि की खटपट. में रोकी और पश्चात् उससे खांडना, पीसना, रांधना, दलना आदि
कराया ।
जिससे उसे वहां बहुत देर लगी तो भी उस गृहस्थ ने व्याकुलतावश उसे नहीं जिमाई, अतः वह भूखी प्यासी घर आई । उसे देखकर भूखे लड़के ने कठोर वचन से कहा कि - क्या तू वहां शूली पर चढ़ गई थी, कि शीघ्र लौटकर नहीं आई ?
' अटवी बहुत बालशुका याने जिसमें बहुत से पक्षी मर गये हों ऐसा वन ।