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उद्भट वेष वर्जेन पर
वह बंधुत्त बंधुमती को पिता के घर छोड़, बन्धुपरिजन सहित नौकारूढ़ होकर समुद्र में रवाना हुआ । वह कुछ दूर गया होगा कि अशुभ कर्म के उदय से समुद्र में वायु प्रतिकुल होकर तूफान उठा ।
जिससे जैसे वियहीन में शास्त्र नष्ट होता है, अथवा शीलहीन पुरुष को दिया हुआ दान नष्ट होता है, उसी भांति वह धन धान्य परिपूर्ण वहाण भी नष्ट हो गया । इतने में बंधुदत्त को एक पढ़िया मिल जाने से वह किसी प्रकार समुद्र के किनारे आया व इधर उधर देखने लगा तो उसे वह श्वसुर का नगर जान पड़ा ।
तब उसने किसी मनुष्य के द्वारा श्वसुर को संदेशा भेजा, जिसे सुन वह "हाय २ यह क्या हुआ ? " इस प्रकार बोलता हुआ उठ खड़ा हुआ । उसके साथ अति उद्भट वेष व रत्नजड़ित आभूषणों से विभूषित बंधुमती भी चली, वे ज्योंही समीप पहुँचे कि इतने में उत्तम रत्न और सुवर्ण से जड़ी हुई चूड़ियों से सुशोभित बंधुमती के दोनों हाथ किसी जुआरी चोर ने काट लिये ।
पश्चात् वह चोर पकड़े जाने के भय से भागकर शीघ्र मार्ग की थकावट से सोये हुए बंधुदत्त के समीप आ पहुँचा ।
उस धूर्त चोर ने सोचा कि यह अवसर है, यह निश्चित कर उक्त काटे हुए दोनों हाथ उसके पास रखकर आप भाग गया । इतने में पीछे से आते हुए कोतवाल की गड़बड़ सुनकर वह जाग उठा. तब उन्होंने उसे चोर ठहरा कर, पकड़ करके शीघ्र ही शूली पर चढ़ा दिया ।
अब रतिसार सेठ अपनी पुत्री की यह दशा देखकर बहुत दुःखी हो ज्योंही जामाता के समीप आया तो वहां उसने