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जिनदास का दृष्टांत
उसमें भी जूआ तो अति व्यसन रूप कंद की वृद्धि करने के लिये नवीन मेघ के समान है और वह अपने कुल को कलंकित करने का कारण है अतः हे भाई ! तू उसे त्याग दे ।
. अन्यत्र भी कहा है किकुल को कलंक लगाने वाला, सत्य से विरुद्ध, महान् लज्जा का बन्धु, धर्म में विघ्न डालने वाला, अर्थ का बिगाड़ने वाला, दानभोग रहित, पुत्र, स्त्री, तथा माता पिता के साथ भी धोखा दिलाने वाला ( ऐसा जूआ है) .
उसमें देवगुरु का भय नहीं रहता तथा कार्य - अकार्य का विचार नहीं रहता और जो शरीर को शोषण करने वाला व दुर्गति का मार्ग है, ऐसा जूआ कौन खेले ? इस प्रकार समझाने पर भी उसने जूआ खेलना नहीं छोड़ा, तब उसने स्वजन सम्बन्धियों के समक्ष कहकर उसे घर आने को रुकवाया।
अन्य दिन किसी जुआरी के साथ खेलते लड़ाई होने से उसने निष्ठुरता से जिनदास को छुरा मारा, जिससे वह घाव से विह्वल होकर रोता हुआ रंक की भांति भूमि पर गिर पड़ा, तब स्वजनों ने उसके भाई को कहा कि- वह दया करने के योग्य है ।
तब वह भी करुणा से प्रेरित हो, कोमल बनकर उसे कहने लगा कि- हे भाई ! तू स्वस्थ हो- मैं तेरा प्रतिकार करूगा । तब जिनदास विनय पूर्वक बोला कि- हे आर्य ! मेरे अनार्य आचरण को तू क्षमा कर, मैं परलोक में जाने की तैयारी में हूँ, अतः भाता दे। तब सेठ बोला कि- हे भाई ! तू सब विषयों से ममता रहित हो, सर्व जीवों से क्षमा मांग और चतुःशरण ले । साथ ही बाल-क्रीड़ा की निन्दा कर, चित्त में पञ्च परमेष्ठि मंत्र का स्मरण