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छः प्रकार का शील का वर्णन
निर्भेदिनी वा चारित्र निर्भेदिनी विकथा निरन्तर होती हो उसे अति दुष्ट अनायतन जानो । ( ये अनायतन न सेवे ) यह प्रथम शील है।
तथा परगृह प्रवेश याने दूसरों के घर जाना, वह अकार्य में याने विशेष आवश्यक कार्य के अतिरिक्त वर्जनीय है। क्योंकिकुछ नष्ट विनष्ट हो जावे तो उनको अपने ऊपर व्यर्थ आशंका रह जाती है यह दूसरा शील है । तथा अनुद्भटवेष याने सामान्य वेष धारण करना यह तीसरा शील है । तथा सविकार वचन अर्थात् राग द्वेष रूप विकार की उत्पत्ति की कारण भूत वाणी न बोले यह चौथा शील है।
तथा बालकीड़ा याने मूर्ख जनों को विनोद देने वाले जुआ आदि काम त्यागे यह पांचवा शील है।
तथा काम याने प्रियजनों को मधुर नीति से अर्थात् “ हे भले भाई ! ऐसा कर " ऐसे साम वचनों से सिद्ध करे यह छठा शील है।
पूर्वोक्त छः प्रकार के शील से जो युक्त हो वह यहां श्रावक के विचार में शीलवान समझा जाता है। - अब इन्हीं छः शील की व्याख्या करते प्रथम आयतन रूप शील को आधी गाथा द्वारा उसके गुण बताकर सिद्ध करते हैं:(आययण सेवणाओ-दोसा खिज्जति बढइ गुणोहो।)
मूल का अर्थः--आयतन सेवन करने से दोष नष्ट होते हैं और गुण समूह की वृद्धि होती है।
टीका का अर्थः--उक्त स्वरूप आयतन के सेवन-उपासन से मिथ्यात्वादि दोष क्षीण होते हैं और ज्ञानादिक गुणसमूह वृद्धि को प्राप्त होते हैं, सुदर्शन के समान ।