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शीलवन्त का दूसरा भेद
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उसने क्रमशः सर्व आगम सीखे, थावच्चाकुमार ने उसे अपने पद पर स्थापित किया और आप हजार शिष्यों सहित सिद्धगिरि पर आकर मोक्ष को पधारे। अब शुक आचार्य भी चिरकाल तक भव्य कमलों को सूर्य के समान विकसित करता हुआ हजार साधुओं के साथ सिद्धगिरि पर आकर मोक्ष को पहुँचा!
सुदर्शन सेठ भी आयतन सेवनरूप अमृतरस से दोप रूप विष के बल को नष्ट कर शुद्ध सम्यक्त्व धारण कर सुगति को प्राप्त हुआ ।
इस प्रकार आयतन की सेवा करने से सुदर्शन सेठ ने सुन्दर फल पाया । अतः भव समुद्र में डूबते बचे हुए हे सज्जनों! तुम उसमें आदरवन्त होओ ।
इस प्रकार सुदर्शन की कथा है:--
शीलवन्त का प्रथम भेद कहा, अब उसका परगृह प्रवेश वर्जन रूप दूसरा भेद कहने के लिये गाथा का उत्तरार्द्ध कहते हैं।
पर गिहगमणं पि कलंक - पंकमूलं सुसीलाणं ||३९|| मूल का अर्थ - खुशील पुरुषों को भी परगृह जाना कलंक रूप पंक का मूल हो जाता है ।
टीका का अर्थ -- परगृह गमन याने दूसरे के घर जाना-अपि शब्द उपरोक्त सुशोल शब्द के साथ जुड़ेगा - फलंक दोप वही निर्दोष पुरुष को मैला करने वाला होने से कादवरूप है । उसका मूल याने कारण है, अर्थात् दोष लगाने वाला है-( किसको सो कहते हैं) सुशील याने सुदृढशील जनों को भी धनमित्र के समान