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धन मित्र का दृष्टांत
कुछ भी न निकले तो कुछ भी नहीं होता है। वहां जितना ऊँचा प्ररोह बैठा हो उतना ही नीचे खोदने पर धन मिलता है।
उस वृक्ष की पीड पर से सकडो व नीचे से चौडो हो, तो वहां निश्चय धन जानो और इससे विपरीत होवे तो वहां धन नहीं होता है। यह निश्चय कर धनमित्र निम्नांकित मंत्र बोलकर . उस जगह को खोदने लगा।
"नमो धनदाय - ननो धरणेन्द्राय - नमो धनपालाय - इति मंत्र पठन् खनतिस्म तं प्रदेशं" "धनद को नमस्कार, धरणेन्द्र को नमस्कार, धनपाल को नमस्कार”.
तथापि अपुण्यता वश उसने वहां केवल अग्नि के अंगार के दो तात्र कलश देखे, तब वह विषाद पाकर सोचने लगा कि-प्ररोह का पीला रस देखने से मैं निश्चय धारता था कि-सुवर्ण निकलेगा। किन्तु हाय-हाय ! मैं अपुण्यवान होने से यहां केवल अंगारे ही देखता हूँ। तथापि उसने विचार किया कि- द्रव्यार्थी मनुष्य ने कुछ भी होने पर भी निराश नहीं होना चाहिये। क्योंकि सब जगह कहावत है कि- हिम्मत रखना ही लक्ष्मी का मूल है ।
यह सोचकर आगे भी उसने बहुत सो भूमि खोदी, किन्तु अपुण्य के योग से उसे कौडो भी नहीं मिली । उसने धातुवाद सीखा, किन्तु उसे क्लेश के सिवाय अन्य फल नहीं मिला। तब वह वणिक बनकर वहाण पर माल लेकर चड़ा। वहां वहाण टूट गया। अब वह स्थल मार्ग से व्यापार करने लगा, उसमें उसने कुछ धन कमाया किन्तु उसे चोर व राजा आदि ने छीन लिया। • तब वह महान् परिश्रम के साथ राजा आदि की नौकरी (सेवा) करने लगा। वहां भी उसके अपुण्यवश उन्होंने उसे कुछ