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परगृह गमन वर्जन पर
उन अंगारों को अपनी गाड़ी में लेकर वह घर आ, जिनप्रतिमा को नमन करके ज्योंही उसे सम्हालने लगा तो तीस हजार का सुवर्ण जान पड़ा। उसने धर्म परायण रहकर दूसरा भी बहुतसा धन प्राप्त किया। जिससे लोक में बाा होने लगो कि-देखो! धर्म का माहात्म्य कैसा है ?
उसी नगर में सुमित्र नामक एक बड़ा सेठ रहता था। उसने कोटि-मूल्य रत्नों की एक रत्नावली बनवाई थी । वह घर में अकेला बैठा था। उसके पास किसी आवश्यक कार्य के हेतु धनमित्र अकेला जा पहुँचा व उसके समीप जाकर बैठ गया। ___ अब धनमित्र के साथ वह सेठ कुछ बातचीत करके किसी कार्य के हेतु घर के अन्दर गया, वापस लौटकर वहां आकर ज्यों ही देखा तो रत्नावली उसके देखने में नहीं आई, जिससे वह बोला कि-मैंने उसे बनवाकर यहां रखी थी, हे धनमित्र! वह कहां चली गई, सो कह ? क्योंकि यहां मेरे व तेरे अतिरिक्त दूसरा कोई था ही नहीं, अतः तू ने ही उसे लिया है। इसलिये मुझे वह वापस दे व देर मत कर । __ तब धनमित्र सोचने लगा कि- अहो ! कर्म का विलास देखो क्योंकि कुछ भी दोष नहीं करते भी ऐसे वचन कान से सहना पड़ते हैं । इसी कारण से श्रावकों को जिनेश्वर ने पर-गृह में जाने का निषेध किया है, क्योंकि वहां जाने से अवश्यमेव कलंक आदि लगना संभव है। अतः मैं आज से अपवित्र निन्दा होने के कारण से भारी काम पड़ने पर भी अकेला कभी पर-गृह में नहीं जाऊँगा।
यह विचार कर, वह बोला कि-हे सेठ ! मैं भी तेरे समान ही इस विषय में कुछ नहीं जानता । तब वह बोला कि हे धनमित्र ! ऐसा बोलने से कुछ छुटकारा होने वाला नहीं। मैं