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आरोग्य नामक ब्राह्मण का दृष्टांत
विज्जेहि तओ भणियं - देहमिणं धम्मसाहणं भद्द। जहवा तहवा पउणिय - पच्छा पच्छित्तमायरसु ॥ १ ॥ तब वैद्य बोले कि-हे भद्र ! यह शरीर धर्म का साधन है, अतः किसी प्रकार भी इसे तन्दुरुस्त (निरोग) करके पश्चात् प्रायश्चित करना। कहा भी है- सव्वत्थ संजमं संजमाउ अप्पाणमेव रक्खिज्जा।
मुच्चई अइवायाओ - पुणो विसोही न याविरई ।। सर्व विषयों में संयम रखना किन्तु संयम से भी आत्मा को रखना चाहिये । क्योंकि जो आत्मा बच जाय तो पुनः विशुद्ध हो सकती है और अविरति नहीं होती है । वह बोला कि-जो पोछे से भो विशुद्धि करनी पड़ती है तो हे भद्र ! कादव के स्पर्श के समान पहिले ही से उसे क्यों करना चाहिये ? इस भांति स्वजन व राजा के आग्रह करने पर भी, उसने नहीं माना, इतने में उन देवताओं ने प्रमुदित हो कर अपना रूप प्रकट किया । पश्चात् उन्होंने इन्द्र की करी हुई प्रशंसा कह कर उसको निरोग किया ताकि उसके स्वजन सम्बंधी भी प्रसन्न हुए व राजा भी रोमांचित हो गया। उसे देखकर लोग हर्षित होकर, धर्म का माहात्म्य प्रगट करने लगा, और बहुत से जीव प्रतिबोध पाकर व्रत पालने को उद्यत हुए। ___ उसी दिन से वह लोक में आरोग्य द्विज नाम से प्रख्यात हुआ और व्रत पालन कर अनुक्रम से सुख का.भाजन हुआ। इस प्रकार से हे भव्य लोकों ! तुम धीर और धर्मेच्छु लोगों के चित्त को चमत्कार करने वाले आरोग्य ब्राह्मण का उत्तम वृत्तान्त सुनकर आनन्द पूर्वक सदैव दृढ़ता से व्रतों को पालन करो । इस प्रकार आरोग्य द्विज का दृष्टान्त हुआ, कामदेव का दृष्टान्त