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दृढ धार्मिकता पर
प्राप्त नहीं होते । यह सुन उन्होंने प्रतिबोध पाकर दोनों पितापुत्र ने श्रावक धर्म स्वीकार किया. उसमें भी उनका पुत्र अत्यन्त दृढ़ धर्मी हुआ।
वह विचारने लगा कि- तरंगों से कुलाचल को तोड़ने वाला समुद्र उछलता हुआ कंदाचित् रोका जा सकता है, किन्तु अन्य जन्म में किया हुआ शुभाशुभ कर्म का देवी परिणाम अटकाया जा ही नहीं सकता। इस भांति विचार कर वह सम्यक प्रकार से रोग सहन करता था और सावद्य चिकित्सा को वह किसी समय मन से भी नहीं चाहता था। . अब इन्द्र ने किसी समय देव सभा में उसकी हद धार्मिकता की प्रशंसा की. तब दो देवता उस बात को न मानकर (परिक्षा के हेतु) यहां वैद्य का रूप धारण करके आये। यहां वे आकर बोले कि- यह बालक जो हमारे कथनानुसार क्रिया करे, तो हम इसे निरोग कर दे। तब उसके स्वजन सम्बन्धी पूछने लगे किवह क्रिया कैसी है ? तब वे नीचे लिखे अनुसार कहने लगे किप्रथम प्रहर में मधु चाटना चाहिये, अंतिम प्रहर में प्राचीन सुरा पीना चाहिये और रात्रि को मक्खन तथा मांस सहित भात खाना चाहिये।
तब ब्राह्मण पुत्र बोला कि- इनमें से एक भी उपाय मैं नहीं कर सकता, क्योंकि वैसा करने से मेरा व्रत भंग हो जावे, जिससे मैं डरता हूँ, साथ ही इनमें स्पष्ट जीव-हिंसा है। क्योंकिकहा है कि- मद्ये मांसे मधुनि च - नवनीते तक्रतो बहिर्जीते ।
उत्पद्यन्ते विलीयन्ते - तद्वर्णासूक्ष्मजंतवः ।। १।। . मद्य में, मांस में, मधु में और तक्र से निकाले हुए मक्खन में उन्हीं के समान रंग के सूक्ष्म जंतु उत्पन्न होते व मरते रहते हैं।