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थावच्चा पुत्र का दृष्टांत ----- -
सनसमा ___ तब सुदर्शन उसे आ देख कर उसके सन्मुख' नहीं हो सामने नहीं गया, बोला नहीं, जमा नहीं किन्तु चुपचाप बैठा रहा । उसे बैठा देखकर शुक, परिबाजक बोला किन्हे सुदर्शन पहिले तू मुझे आता देखकर मालगाता था बवाना सरिता था किन्तु इस समय वैसा नहीं करता है. मा बने ऐसा विनय वाला धर्म किससे स्वीकार किया है ? ... इसका ऐसा वचन सुनकर सुदर्शन आसन से उठकर, शुक परिव्राजक को इस प्रकार कहने लगा कि-हे देवानुप्रिय ! अर्हत् अरिष्टनेमि के अंतेवासी थावच्चापुत्र नामक अनगार यहां आये हुए हैं, जो कि अभी भी यहां नीलाशोक नामक उद्यान में विचरते हैं, उनके पास से मैंने विनय मूल धर्म स्वीकृत किया है। - तब शुक परिव्राजक सुदर्शन को इस प्रकार कहने लगा-हे सुदर्शन ! चलो, अपन तेरे धर्माचार्य थावश्चापुत्र के पास चलें, मैं उसे अमुक प्रकार के अमुक प्रश्न पूछूगा वह जो उनके उत्तर नहीं देंगे तो इन्हीं प्रनों से तुमे बोलता बंद करूगा। तदनन्तर शुक हजार परिव्राजकों (शिष्यों) व सुदर्शन के साथ नीलाशोक उद्यान में थावश्चापुत्र अनगार के पास आकर इस प्रकार बोला:____ हे पूज्य ! आपको यात्रा है ? आपको यापनीय है ? आप को अव्याबाध है ? आपको प्राशुक विहार है ? तब थावश्चापुत्र शुक परिव्राजक के ये प्रश्न सुनकर उसे इस भांति उत्तर देने लगे:-हे शुक ! मुझे यात्रा भी है, यापनीय भी है, अव्याबाध भी है और प्राशुक विहार भी है, तब शुक परिव्राजक थावश्चापुत्र को इस प्रकार पछने लगा:-- __ हे भगवन् ! यात्रा क्या है ? (थावच्चापुत्र बोले ) हे शुक ! जो मेरे ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, संयम आदि योग की यतना .