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आनन्द श्रावक का दृष्टांत
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से सरल हृदय जीव को अवश्य प्रकट हो जाता है, इसी प्रकार गुरु शिष्य दोनों को मृषावाद नहीं लगता क्योंकि वहां किसी भी प्रकार गुण का लाभ रहता है ।
तो भी शठ ( कपटी ) पुरुष को गुरु ने व्रत नहीं देना चाहिये, कदाचित् छद्मस्थपन के कारण शठ की शठता न पहिचानने से गुरु उसे व्रत द तो भी वे निर्दोष माने जायेंगे क्योंकि गुरु के परिणाम तो शुद्ध ही हैं यह बात हम अपनी कल्पना से नहीं कहते ।
क्योंकि श्रावक प्रज्ञप्ति में कहा है कि, परिणाम होते भी गुरु से लेने में यह गुण है कि हढ़ता होती है, आज्ञा रूप से विशेष पालन होता है और कर्म के क्षयोपशम की वृद्धि होती है ।
इस प्रकार यहां अधिक फल होने से दोनों को हानि होने का दोष नहीं रहता. वैसे ही परिणाम न होने पर भी गुण होने से मृषावाद नहीं लगता ।
जिससे उसके ग्रहण से वह भाव कालांतरे अशठ भाव वाले को प्राप्त होता है, अन्य याने शठ को वह देना ही नहीं चाहिये, कदाचित गुरु ठगा जाय तो भी उनके अशठ होने से उनको दोष नहीं ।
विस्तार से पूर्ण हुआ, अब कैसे लेना सो कहते हैं : परिज्ञान करने के अनन्तर इत्वर काल पर्यंत अर्थात् चातुर्मासादिक की सीमा बांधकर अथवा यावत्कथिक याने यावज्जीवन पर्यंत व्रत लेना याने उसने व्रत लेना चाहिये ।
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आनन्द श्रावक का दृष्टान्त इस प्रकार है :वाणिज्यग्राम नगर में अर्थिजनों को आनन्द देने वाला आनन्द नामक गृहपति था, उसके शिवनन्दा नामक भार्या थी ।