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व्रतादि ज्ञान के उपर तुरंगिया नगरी श्रावक का दृष्टांत
दूँ ? इस तरह अहंकार करना सो मत्सर वह मत्सरवाला सो मत्सरिक और मत्सरिकपन सो मत्सरिकता ।
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इस प्रकार संक्षेप से द्वादश व्रत कहे, उनका विस्तार से वर्णन आवश्यक की नियुक्ति, भाष्य तथा टीका में है ।
इस प्रकार श्रावक व्रत के भेद व अतिचार जाने. व्रतपरिज्ञान यहां उपलक्षण के रूप में है, अतः तप संयम आदि के फल आदि को भी तुरंगिका नगरी के श्रावकों के समान जाने ।
तु' गिया नगरी श्रावक का दृष्टान्त इस प्रकार है
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उस काल में उस समय में तुरंगिका नामक एक नगरी थी ( नगरी का वर्णन उववाई सूत्र के अनुसार जान लेना चाहिये ) उस तुरंगिका नगरी के बाहिर ईशान्य कोण में पुष्पवती नामक चैत्य ( मंदिर ) था, ( चैत्य का वर्णन भी उववाई सूत्र के अनुसार जानो )
उस तु गिका नगरी में बहुत से श्रमणोपासक वसते थे, वे पैसेदार, दाप्तिवान, मालोमाल, विशाल भवन, राचरचीले व वाहन वाले, विपुल सोने चांदी के स्वामी और महान व्यापारी थे, उनके यहां बहुत से खानपान तैयार होते थे और उनके घर बहुत से दास, दासी, गाय, भैंस, बकरी आदि थे, वे किसी से भी परतंत्र न थे - तथा वे जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष के ज्ञाता थे, जिससे उनको बड़े २ देव दानव, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड़, गंधर्व, महोरग आदि देवता भी जैन सिद्धांत से डिगा नहीं सकते, वे जैन. सिद्धांत में शंका- कंखा विचिकित्सा से रहित थे, वे जैन सिद्धांत के अर्थ को गुरु से सुनकर उसे भली भांति धारण कर रखने