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शिक्षात्रत का वर्णन
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उपभोग परिभोग का अतिरेक याने अधिकता सो उपभोगपरिभोगातिरेक । यहां यह जानना है कि- अपने उपभोग में आने से अधिक तांबूल, मोदक, मंडकादि आदि उपभोग के अंग, तालाब आदि स्थान में नहीं ले जाना, अन्यथा वहां उनको मसखरे भी खाने लगे और जिससे अपने को निरर्थक कर्मबंधन का दोष लगे। यह भी विषय रूप होने से प्रमादाचरित का अतिचार है, अपध्यान व्रत में अनाभोगादि से प्रवृति हो सो अतिचार है । आकुट्टि से प्रवर्तित होते भंग ही माना जाता है। इस प्रकार कंदर्पादिक में भी संभवानुसार आकुट्टि से प्रवृति करना सो भंग रूप ही जानो । इस प्रकार अनर्थदंड व्रत कहा। __ ये दिग्वतादिक तीनों गुणव्रत कहलाते हैं, क्योंकि - वे अणुव्रतों को गुण याने उपकार करते हैं, और अणुव्रतों को गुण व्रतों से उपकार होता है, यह स्पष्ट है, क्योंकि-विवक्षित क्षेत्रादिक से दूसरी जगह हिंसा रुकती है ।
___ इस प्रकार गुणव्रत रूप तीन उत्तरगुण कहे ।
अब उत्तर गुणरूप चार शिक्षा व्रत कहते हैं, वहां शिक्षा याने अभ्यास, उस सहित व्रत सो शिक्षाव्रत अर्थात् बारम्बार सेवन करने योग्य व्रत, वे सामायिक आदि चार हैं।
वहां सम याने राग द्वेष रहित जीव का आय याने लाभ सो समाय, सम पुरुष प्रतिक्षण चिंतामणि व कल्पवृक्ष से अधिक प्रभाव वाले और निरुपम सुख के हेतु रूप अपूर्व ज्ञान दर्शन को चारित्र के पर्याय से जुड़ते हैं, समाय है प्रयोजन जिस क्रियानुष्ठान का सो सामायिक है, वह सावध परित्याग और निरवद्य के आसेवन रूप व्रतविशेष है, गृहवास रूप महासमुद्र के निरन्तर उछलते अनेक महान कामों की तरंगों के चलने से