Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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(LVII) करना चाहते हैं, तो फिर उनके लिए विस्तृत व्याख्या वाले संस्करण अधिक उपयोगी हो सकते हैं ।
हमारी 'केवल हिन्दी अनुवाद वाली ग्रन्थमाला' के प्रथम पुष्प के रूप में दशवैकालिक और उत्तराध्ययन का प्रकाशन हुआ था। उस संदर्भ में ये विचार मननीय हैं—
''दशवैकालिक' और 'उत्तराध्ययन' ये दोनों मूल सूत्र हैं । जैन परम्परा में इनका अध्ययन, वाचन और मनन बहुलता से होता है । भगवान् महावीर की पचीसवीं निर्वाणशताब्दी के अवसर पर इनका अध्ययन और मनन अधिक मात्रा में हो, यह अपेक्षित है । इस अपेक्षा को ध्यान में रखकर केवल अनुवाद की ग्रन्थमाला पाठकों के सामने प्रस्तुत की जा रही है । इससे हिन्दी भाषी पाठक बहुत लाभान्वित होंगे ।
"भगवान् महावीर की सर्वजनहिताय जनभाषा (प्राकृत) में प्रादुर्भूत वाणी को वर्तमान जनभाषा (हिन्दी) में श्रृंखलाकार प्रस्तुत करते हुए हमें हर्ष का अनुभव हो रहा है।""
दशवैकालिक और उत्तराध्ययन के केवल हिन्दी अनुवाद वाले संस्करण की भूमिका के रूप में स्वकथ्य में वाचना - प्रमुख आचार्यश्री तुलसी ने स्वयं लिखा है - "प्रस्तुत ग्रन्थ दशवैकालिक और उत्तराध्ययन का हिन्दी संस्करण है । जो व्यक्ति केवल हिन्दी के माध्यम से आगमों का अनुशीलन करना चाहते हैं, उनके लिए यह संस्करण बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगा, इसी आशा के साथ । २
अस्तु, समग्र दृष्टि से लाभालाभ का चिन्तन करने पर यह समुचित ही नहीं वरन् आवश्यक भी प्रतीत हो रहा है कि केवल अनुवाद वाले (हिन्दी / अंग्रेजी) संस्करणों के निर्माण पर भी हम अपना ध्यान केन्द्रित करें ।
आगमों के केवल हिन्दी अनुवाद वाले संस्करण के प्रकाशन - कार्य के इतिहास में जो उल्लेखनीय कार्य हुआ था, उसमें आज से लगभग ८० वर्ष पूर्व स्थानकवासी सम्प्रदाय के अमोलक ऋषि द्वारा किए गए ३२ आगमों का अनुवाद - कार्य उल्लेखनीय है । इस विषय में आज से लगभग २० वर्ष पूर्व प्रकाशित आगमों के आदिवचन में स्थानकवासी सम्प्रदाय के युवाचार्य मुनिश्री मधुकरजी ने बताया है- "आज से लगभग साठ वर्ष पूर्व पूज्य श्री अमोलकऋषिजी महाराज ने जैन आगमों - ३२ सूत्रों का प्राकृत से खड़ी बोली में अनुवाद किया था । उन्होंने अकेले ही बत्तीस सूत्रों का अनुवाद कार्य सिर्फ ३ वर्ष व १५ दिन में पूर्ण कर एक अद्भुत कार्य किया। उनकी दृढ़ लगनशीलता, साहस एवं आगम-ज्ञान की गम्भीरता उनके कार्य से ही स्वतः परिलक्षित होती है । वे ३२ ही आगम अल्प समय में प्रकाशित भी हो गये ।
"इससे आगम-पठन बहुत सुलभ व व्यापक हो गया और स्थानकवासी, तेरापंथी समाज तो विशेष उपकृत हुआ ।'
१३
१.
दशवैकालिक और उत्तराध्ययन, सम्पादकीय, पृ. ९ ।
२.
३.
वही, स्वकथ्य, पृ. 'ङ्' ।
प्रज्ञापना, आदिवचन, पृष्ठ २२-२३ ।