Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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श. ८ : उ. १ : सू. २९-३४
भगवती सूत्र प्रकार पर्याप्त-गर्भावक्रान्तिक-जलचर-तिर्यंच-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत की वक्तव्यता। केवल इतना विशेष है कि बादर-वायुकायिक की भांति शरीर चार होते हैं। जैसे-जलचर के चार आलापक कहे गए हैं वैसे ही चतुष्पद उरः-परिसर्प, भुज-परिसर्प और खेचर के भी चार
आलापक वक्तव्य हैं। ३०. जो संमूर्छिम-मनुष्य-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं वे औदारिक-, तैजस- और कर्म-शरीर-प्रयोग-परिणत हैं। इसी प्रकार गर्भावक्रान्तिक-मनुष्य-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत की वक्तव्यता। इसी प्रकार अपर्याप्तक की वक्तव्यता। पर्याप्तक की वक्तव्यता भी इसी प्रकार है। केवल इतना विशेष है कि पांच शरीर वक्तव्य हैं। ३१. जो अपर्याप्त-असुरकुमार-भवनवासी-प्रयोग-परिणत हैं वे नैरयिक की भांति वक्तव्य हैं। इसी प्रकार पर्याप्त-असुरकुमार-भवनवासी-प्रयोग-परिणत की वक्तव्यता। इसी प्रकार दो-दो भेद के अनुसार यावत् स्तनितकुमार-भवन-वासी-प्रयोग-परिणत की वक्तव्यता। इसी प्रकार पिशाच यावत् गंधर्व की वक्तव्यता। चन्द्र- यावत् ताराविमान की वक्तव्यता। सौधर्म-कल्प यावत् अच्युत-कल्प की वक्तव्यता। सबसे नीचे वाले ग्रैवेयक यावत् सबसे ऊपर वाले ग्रैवेयक की वक्तव्यता। विजय-अनुत्तरौपपातिक यावत् सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरौपपातिक की वक्तव्यता। प्रत्येक के अपर्याप्त और पर्याप्त ये दो भेद वक्तव्य हैं यावत् जो पर्याप्त-सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरौपपातिक-कल्पातीतग-वैमानिक-देव-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं वे वैक्रिय-, तैजस- और कर्म-शरीर-प्रयोग-परिणत हैं। इन्द्रिय की अपेक्षा प्रयोग-परिणति-पद ३२. जो अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं वे स्पर्शनेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं। इसी प्रकार पर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत की वक्तव्यता। इसी प्रकार अपर्याप्त-बादर-पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत की वक्तव्यता। इसी प्रकार पर्याप्त पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत की वक्तव्यता। इस प्रकार चार-चार
भेदों के अनुसार यावत् वनस्पतिकायिक-एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत की वक्तव्यता। ३३. जो अपर्याप्त-द्वीन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं वे रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं। इसी प्रकार पर्याप्त-द्वीन्द्रिय-प्रयोग-परिणत की वक्तव्यता। इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय-प्रयोग-परिणत की वक्तव्यता। केवल इतना विशेष है-त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय में क्रमशः एक-एक इन्द्रिय की वृद्धि करनी चाहिए। ३४. जो अपर्याप्त-रत्नप्रभा-नैरयिक-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं वे श्रोत्रेन्द्रिय-चक्षुरिन्द्रिय-, घ्राणेन्द्रिय-, रसनेन्द्रिय- और स्पर्शनेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं। इसी प्रकार पर्याप्त-रत्नप्रभा-पृथ्वी-नैरयिक-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत की वक्तव्यता। इसी प्रकार शेष सब की वक्तव्यता। तिर्यग्योनिक, मनुष्य और देव यावत् जो पर्याप्त-सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरौपपातिक-कल्पातीतग-वैमानिक-देव-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं वे श्रोत्रेन्द्रिय-, चक्षुरिन्द्रिय-, घ्राणेन्द्रिय-, रसनेन्द्रिय- और स्पर्शनेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं।
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