Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. ८ : उ. ५, ६ : सू. २३९-२४५
इस प्रकार उनपचास भंग वक्तव्य हैं यावत् अथवा न करने वाले का अनुमोदन करता है। काया से ।
२४०. भन्ते ! श्रमणोपासक के स्थूल मृषावाद का पहले प्रत्याख्यान नहीं होता । भन्ते ! फिर वह उसका प्रत्याख्यान करता हुआ क्या करता है ?
जैसे प्राणातिपात के एक सौ सैंतालीस भंग कहे गए हैं वैसे ही मृषावाद भी एक सौ सैंतालीस भंग वक्तव्य हैं। इसी प्रकार स्थूल अदत्तादान, स्थूल मैथुन और स्थूल परिग्रह की वक्तव्यता, यावत् अथवा न करने वाले का अनुमोदन करता है काया से ।
श्रमणोपासक ऐसे होते हैं, उक्त विधि से प्रतिक्रमण, संवर और प्रत्याख्यान करने वाले होते हैं । आजीवक के उपासक ऐसे नहीं होते ।
२४१. आजीवक समय का यह अर्थ प्रतिपाद्य है - सब प्राणी सजीव का परिभोग करने वाले हैं इसलिए वे जीवों को हनन, छेदन, भेदन, लोपन, विलोपन और प्राण वियोजन कर आहार करते हैं।
२४२. आजीवक समय में बारह आजीवकोपासक हैं, जैसे- १. ताल, २. ताल प्रलंब ३. उद्विध ४. संविध ५. अपविध ६. उदक ७. नामोदक ८. नर्मोदक ९. अनुपालक १० शंखपालक ११. अयंपुल १२. कायरक-ये बारह आजीवकोपासक अर्हत् को अपना देवता मानते हैं, माता-पिता की शुश्रूषा करने वाले हैं, पांच फलों का परित्याग करने वाले हैं, (जैसे- उदुम्बर, वट, पीपल, अंजीर, पाकर) प्याज, लहसुन, कंद और मूल का वर्जन करने वाले हैं, नपुंसक बनाए बिना, नाक का छेदन किए बिना, बैलों से खेत जोत कर त्रस जीवों की हिंसा न करते हुए कृषि द्वारा अपनी आजीविका चलाते हैं ।
ये आजीविकोपासक भी इस प्रकार का जीवन जीना चाहते हैं तो ये जो श्रमणोपासक होते हैं, उनका कहना ही क्या ? उन श्रमणोपासकों के लिए इन पन्द्रह कर्मादानों का आसेवन स्वयं करना, दूसरों से करवाना और करने वालों का अनुमोदन करना - करणीय नहीं है, (पन्द्रह कर्मादान) जैसे- अंगार-कर्म, वन-कर्म, शकट कर्म, भाटक-कर्म, स्फोटन-कर्म, दंत- वाणिज्य, लाक्षा-वाणिज्य, केश वाणिज्य, रस-वाणिज्य, विष-वाणिज्य, यंत्र - पीलन-कर्म, निर्लांछन-कर्म, दवाग्निदापन, सर-द्रह - तडाग - परिशोषण, असती-पोषण ।
ये श्रमणोपासक शुक्ल, शुक्ल अभिजाति वाले होकर काल मास में काल कर किसी देवलोक में देव-रूप में उपपन्न होते हैं ।
२४३. भन्ते ! देवलोक कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं ?
गौतम ! देवलोक चार प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे- भवनवासी, वाणमंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक २४४. भन्ते ! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है ।
छट्ठा उद्देश
श्रमणोपासक - कृत दान का परिणाम-पद
२४५. भन्ते ! तथारूप श्रमण, माहन को प्रासुक एषणीय अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य से
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