Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 543
________________ pamagar पृष्ठ तिक रहता था। पूर्ववत (म. ११/१६) यावत् अगर | अपन मेते-क्या मेरविक तिर्यग्योनिक में वनस्पतिकाविक-जीवों उद्वर्तना वैसे | उत्पत्र जीवों की | सर्व सत्त्व, उत्पल-मूल |हां गौतम! शीर्षक शालु आदि जीवों मंते! एकपत्रक-शालु क्या (जपत-गीय) अनंतर उपपन्न होते-क्या नैरविको तिर्ययोनिको में वनस्पतिकायिक-जीवों (वर्तना उक्त है) वैसे (उत्पल-जीवों की) | सर्व सत्त्व उत्पल-मूल हां, गौतम! शालूक-आदि-जीवों भंते! एकपत्रक-शालूक (उत्पल-कंद) क्या निरवशेष है (म. १/१-४०) यावत् -असंख्यातवां उद्देशक (म. ११/-४०) की निरवशेष | २ |स्वजन संबची हुआ विशिष्ट ६ रह रहा था। | पूर्वक्त् यावत् |विहार करूंगा किया, जैसे१६ स्व-शरीर ४ | शेष पूर्ववत् | आतापन- भूमि २ (२/१०६-१०६) २ की वक्तव्यता " हुई यावत् कहा- गौतम ८ है। यावत् भण्ड को भी। अजीव तिर्यक् वक्तव्यता द्वितीय की भांति वक्तव्यता, है। शेष २ | उद्देशक की वक्तव्यता वैसे ही किया, (जैसे स्व-शरीर ||211) शेष पूर्ववत् (म. १/६४) आतापन-भूमि (भ. २/१०६-१०६) में (उक्त है वैसे वक्तव्य है) हुई (प. २/११०) यावत् कहा-गौतम | है (म. ११/६३-७२) यावत् भाण्ड तिर्यग् भी है, अजीव तिर्यग्(वक्तव्यता) जैसे द्वितीय (उक्त है वैसे यहां वक्तव्य है), है, शेष उद्देशक (प.२/१४०) में अलोकाकाश (उक्त है) वैसे ही यहां है २. जीव है? २. जीव है? र) । २ | संपूर्ण रूप से ३ | है यावत् ४ असंख्यातवां | उद्देशक की ४४,४६ " | सम्पूर्ण रूप से १४ | देश है। प्रदेश है। | १ | तिर्यक्-लोक २ प्रकार अधो-लोक * | २० | वाले हैं। इस प्रकार जैसे | २१ की वक्तव्यता है, वाले है इस प्रकार की भांति (वक्तव्य है) (भ. ६/१५६) देव गति वाले भी है, देव-गति वाले हैं, अथवा प्रदेश है, तिर्यग्-लोक प्रकार जैसे (म. ११/१०४ में) यावत अघो-लोक वैसे ही (तिर्यग-लोक-क्षेत्र-लोक की वक्तव्यता), इस प्रकार ऊर्ध्व-लोक भी (वक्तव्यता) (वक्तव्य) - इसी प्रकार ऊर्ध्व-लोक ६,१३ | पूर्ववत् यावत् | १ |कर यावत् आदिकर याक्त ३ | शोभित यावत् पूर्ववत् (म. १/७७) यावत् कर (म. ११/७३) यावत् आदिकर (म. १/७) यावत् शोभित (ओवाइयं, सू. १६) यावत वक्तव्यता वक्तव्य है, शेष २ | उद्देशक की भांति वक्तव्यता, भी?)। १ धर्म कहते है यावत् है (म. ११/१८), शेष | उद्देशक (म.१/४४-४५) में (उक्त है वैसा) वक्तव्य है, उद्देशक (म. ११/४७) की उद्देशक (भ. ११/१-४०) की पूर्ववत् (म. ११/५१) निरवशेष है (प. ११/+४०) यावत् | पूर्ववत् निरवशेष थी-सुकुमार-हाथ-पैर | सुकुमार-हाथ-पैर-वाला (रायपसेणियं, सू. ६७३-६७४) पर (म. २/६६) यावत् ओवाइयं (सू. ६४) में (उक्त है वैसे) (वक्तव्य है) -बुहार जमीन करो (ओवाइयं सू. ५५) यावत् कलशों (म. ६/१८२) यावत् ऋद्धि (प. ६/१६२) यावत् प्रकार (म. ६/१६०) यावत् जय हो। हे भद्रपुरुष ' स्कन्दक की २ भांति यावत् ७ |सर्व यावत् ४-५ | है। इस प्रकार जैसे उववाई की | वक्तव्यता है वैसे ही संहनन, ५ | परिवसना इस धर्म का निरूपण करते है ओवाइय, सू. ७१-७७) यावत् स्कन्दक (भ.२/५२) की भांति (वक्तव्य है) यावत् सर्व (म. ६/११०, १५१) यावत् है, इस प्रकार जैसे ओवाइयं (में उक्त है वैसे वक्तव्य है) संहनन, | परिवसन (वक्तव्य है)। उद्देशक की | उद्देशक की | पूर्ववत् सम्पूर्ण रूप से २ है यावत् | पूर्ववत् सम्पूर्ण रूप से - थी-सुकुमाल हाथ पैर ४ | सुकुमार हाथ पैर वाला " (रायपसेगइयं, ६७३-६७४) | पर यावत् ओवाइयं में वक्तव्यता है | बुहार जमीन | करो यावत् ४ | कलशों यावत् | ऋद्धि यावत् ७ प्रकार यावत् |१३, १४ जय हो। । हे भद्रपुरुष ४११ | ६१/ २२ | विहार करो। ४११ ६२| २ |-वर्णक ४११-१२६२-६६ सर्वत्र | विहार करने लगा। १५ अजीव- द्रव्य है यावत् ५ वाले यावत् २ | इस समय-क्षेत्र में ५ मंदर चूलिका पंचेन्द्रिय प्रदेश b६, १७| है? छविच्छेद करती है | २ | किससे | ३ | विशेषाधिक है? ४ | गौतम! सबसे अल्प लोक अजीव-द्रव्य है (ठा. १/२४८) यावत् वाले (म. ३/४) यावत् यह समय-क्षेत्र मंदर-चूलिका पंचेन्द्रिय-प्रदेश है? छविच्छेद करती है? ५-६ | उपवाई (सू. १८५-१६८) तक ओवाइयं (सू. १८५-१६८) ६ यावत् सिद्ध यावत् सिद्ध |राजगृह नगर यावत् गौतम ने इस | राजगृह (म. १/४-१०) यावत् इस २ | तिर्यक् लोक तिर्यग्-लोक . सात प्रकर सात प्रकार - जम्बूद्वीप द्वीप तिर्यक् लोक-क्षेत्र-लोका जम्बूद्वीप-द्वीप-तिर्यग्-लोक-क्षेत्र-लोक | सौधर्मकल्प | सोधर्म-कल्प ईशान, ९०३,४ | सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, सनत्कुमार-, माहेन्द्र-, ब्रह्मलोक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, लान्तक-, महाशुक्र-, सहस्रार-, आरण और अच्युत-कल्प आनत-, प्राणत-, आरण- और अच्युत-कल्प |४२२ | उत्कृष्ट पद इति-पलाश ३,४ यावत् रह रहा धर्म कहा यावत | किनसे | विशेषाधिक है? गौतम! लोक अल्प है, उत्कृष्ट-पद दूतिपलास (भ. २/६४) यावत् रहता धर्म का निरूपण किया (ओवाइयं, सू. ७१-७७) यावत् रात्रि-प्रमाण-काला रहो। -वर्णक (ओवाइयं, सू. १४) | रहने लगा। रात्रि-प्रमाण- काला ( ३१)

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