Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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पृष्ठ सूत्र पंक्ति
३६७ ७७
३६६
३६६
अशुद्ध
की वक्तव्यता । ७८ १ नागकुमारराज नागकुमारेन्द्र ७८ २-३ हैं?
800
४०१ ४०१
४०१
७८
३६६ ७६ ५ ८०९८१ १ ३६६ ८०
३६६ ८१
३६६
८१
4
शेष
पूर्ववत्, इतना
शेष रायपसेणइय (सूत्र ७) की भांति ७६,८१ सर्वत्र चमर है। शेष लोकपाल की
४०१
८१
८१
८१
809
४०१
४०१
४०१
३
भगवई, ३/४
३६६
८१
राजधानी और सिंहासन भी ३६६ ८१ ८६ चमर लोकपाल की
४०० ८२ ३
३
*** *******
४०१ ६१,६५
४०१
६१,६४ |
४
४०० ८२ ८६ सर्वत्र की वक्तव्यता
४०० ८३-६६
१ की पृच्छा
४०० ८३-८५ सर्वत्र काल की भांति वक्तव्यता।
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30 2 1
४
२
ܡ
की- पृच्छा।
काल (म. १०/८२) की भांति (वक्तव्यता) ।
- राजधानियां अर्चिमाली, प्रभंकरा
अर्चिमाली प्रभंकरा |
६० ३-४ उद्देशक की वक्तव्यता। इसी प्रकार उद्देशक (उक्त है), वैसे ही
(वक्तव्य है), की भी (चार
४.
५.
शेष तीन की पृच्छा
है। अवशेष धरण भूतानंद के शेष तीन
धरणेन्द्र वक्तव्यता । उनके लोकपालों है। परिवार
HE
३
३
५
५.
है। शेष चमर लोकपाल की
२-३
- राजधानी
की चार
है
पूर्ववत् यावत् परिवार की ऋद्धि
का उपयोग करते हैं, मैथुन
है। शेष
वक्तव्यता,
की वक्तव्यता । अठासी
वक्तव्यता यावत्
वक्तव्यता।
*
२
३
१ भंते !
की वक्तव्यता
हैं?
शुद्ध
( की वक्तव्यता)। (नागकुमारराज नागकुमारेन्द्र) हैं? शेष
चमर
पूर्ववत् (भ. १०/६७-६६ ), इतना शेष पूर्ववत्
है, अवशेष चमर-लोकपालों (भ. १०/७०-७३) की शेष तीनों ही की - पृच्छा।
है, अवशेष धरण (म. १०/७६-७८) (भूतानंद के शेष तीनों ही धरणेन्द्र (म. १० / ७६ - ७८ ) (वक्तव्यता), उनके लोकपालों (भ.१०/७६) हैं, परिवार (म. ३/१४, १५) राजधानियां और सिंहासन चमर के लोकपालों (भ. १०/७०७३) की
है, शेष चमर के लोकपालों (भ.
१०/७०-७३) की
की भी ( वक्तव्यता)
हैं-)
पूर्ववत् (भ. १०/६७-६६) यावत् मैथुन
है, शेष
(वक्तव्यता),
की भी ( वक्तव्यता ) ।
अठासी ही
वक्तव्यता (ठा. २/ ३२५) यावत् (वक्तव्यता)। ( की वक्तव्यता)।
भंते! (क्या) हैं? शेष चमर
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४०१
६४ ३
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८४
६५
६५ ३,५
६५
४.
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५.
४०१
६६
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४०१ ६७ ४
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४०२ ६७ ५
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४०२ ८८ ४०२
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४०३ सं. गा.
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६.
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६
५
१
४
२
३
२
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४. ३
२,३
३
४
३
दोनों बार
२,४ देव
३
दोनों बार
५
परिवार की
(म. ३/४) लोकपाल की
वक्तव्यता
सिंहासन
(३ / २५०-५१ )
शुक्र की लोकपाल वक्तव्यता शतक (४ / २-४ ) पूर्ववत् यावत् चौड़ा है, इस प्रकार
अलंकार अर्चनिका
आत्मरक्षक
वक्तव्य है। शक्र
अशुद्ध
मनुष्य
बारहवां उद्देशक है।
राजगृह नगर यावत् हुए गौतम ने इस
नैरयिक
तिर्यग्योनिक
शक्र
वाला यावत्
वाला (म. ३/४) यावत् यावत् दिव्य (भ. ३/१६) यावत् जीवाजीवाभिगम की वक्तव्यता जीवाजीवाभिगम (३ / २२७) में उक्त वैसे
है, वैसे
की वक्तव्यता।
तका
वे जीव वनस्पतिकायिक अवक्रांति पद
होते हैं।
कितनी
है?
-कर्म की वक्तव्यता
पृच्छा ।
भी है
भी हैं
शतक ११
- आयुष्य कर्म के
( ३० )
परिवार
(म. ३/१६)
लोकपालों (म. १०/७०-७२ ) की (वक्तव्यता),
सिंहासन पर
(म. ३/२५०-२५१, २५६,२६१, २६६) शुक्र (म. १०/६२-६४ ) की
लोकपालों (म.१०/६५) (वक्तव्यता)
शतक (म. ४ / २-४ ) पूर्ववत् (भ. १०/६७-६६) यावत् चौड़ा है,
शुद्ध
इस प्रकार अलंकार - अर्चनिका आत्मरक्षक तक (वक्तव्य हैं) 11911
बारहवां- ग्यारहवें शतक के ये बारह उद्देशक हैं || 9 ||
राजगृह (भ. १/४-१०) यावत्
हुए इस
नैरयिकों
तिर्यग्योनिकों
मनुष्यों
देवों
(वे जीव) वनस्पतिकायिकों अवक्रांति पद
होते हैं, कितनी बड़ी प्रज्ञप्त है? (-कर्म) की ( वक्तव्यता)
- पृच्छा ।
है अथवा
है अथवा
- ( आयुष्य कर्म के)
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४०४
८, ११
२-३
90
३
११
३
४०४-०५ १२-२३|
४०४
१२
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.........
४०५
४०६
.....
४०७
4
१४
१७
४०५ २६
२७
२८
४०७
.
२३
99
२४, २६
३०,
३२-३३
३०
३१
३४
***
३६-३७ ३८
१
५
१, २
३
३
१
२
१
४
१
५
२
४
अशुद्ध
आन्तरायिक की वक्तव्यता आन्तरायिक की वक्तव्यता
५.
वेदनीय और आयुष्य के आठ
विकल्प
..
जीव
तेजस लेश्या
सम्यक्-मिथ्या
दृष्टि हैं। अज्ञानी
वर्ण कितने
उन जीवों के शरीर है- अस्सी
उन जीवों के शरीर
क्या वे जीव
४
५ करता है काल
५-६ काल-वनस्पति काल
४.
काल इतने
ह।
जीव
क्या वे जीव
है ।
के रूप में उत्पन्न होता है
असंख्येय काल ।
जीव के रूप में उत्पन्न होता है,
वक्तव्यता । की वक्तव्यता,
की वक्तव्यता ।
वक्तव्यता। इसी
की वक्तव्यता ।
के रूप में उत्पन्न होकार
के आहार की वक्तव्यता,
है। इतना
६, ७ है। शेष पण्णवणा की भांति
साथ उत्पन्न
वक्तव्यता यावत् करता है?
वे जीव
द्रव्य, स्पर्श-युक्त |
वक्तव्यता है। जीवों
वे जीव
शुद्ध
आन्तरायिक (कर्म) की (वक्तव्यता) आन्तरायिक (कर्म) की ( वक्तव्यता) वेदनीय (कर्म) और आयुष्य (-कर्म) के आठ भंग
जीव क्या
तैजस-लेश्या
सम्यग्-मिथ्या दृष्टि
है ? (अथवा ) अज्ञानी
वर्ण, कितने
(उन जीवों के शरीर) है-अस्सी
( उन जीवों के शरीर ) ।
जीव क्या
हैं ( म. ११/१८) | जीव क्या
जीव क्या
( के रूप में उत्पन्न होता है),
असंख्येय काल
-जीव (के रूप में उत्पन्न होता है), (वक्तव्यता) |
उक्त है,
वक्तव्य है।
करता है। काल
काल-वनस्पति-काल काल-इतने
(वक्तव्यता), इस
की भी ( वक्तव्यता) ।
(के रूप में उत्पन्न होता है), पुनः
उत्पन्न जीव के रूप में उत्पन्न हो कर
साथ भी ( उत्पन्न
वक्तव्यता) यावत् करता है।
वे (उत्पल ) जीव
द्रव्यों,
स्पर्श-युक्त (द्रव्यों का आहार करता करता है)।
का आहार (उक्त है),
है, इतना
है, शेष पूर्ववत् (पण्णवणा की भांति)
( वक्तव्यता है)।
(उत्पल) जीवों वे (उत्पल) जीव