Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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श. ९ : उ. ३२,३३ : सू. १३३-१३९
भगवती सूत्र मैं आपके
सप्रतिक्रमण पंच-महाव्रतात्मक धर्म को स्वीकार करना चाहता हूं।
देवानुप्रिय! जैसे तुम्हें सुख हो, प्रतिबंध मत करो। १३४. वह गांगेय अनगार श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार करता है। वंदन-नमस्कार कर चतुर्याम धर्म से मुक्त होकर सप्रतिक्रमण पंच-महाव्रतात्मक धर्म को स्वीकार कर विहार
करता है। १३५. वह गांगेय अनगार बहुत वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय का पालन करता है, पालन कर जिस प्रयोजन से नग्नभाव, मुण्डभाव, स्नान न करना, दतौन न करना, छत्र धारण न करना, पादुका न पहनना, भूमिशय्या, फलकशय्या, काष्ठशय्या, ब्रह्मचर्यवास, भिक्षा के लिए गृहस्थों के घर में प्रवेश करना, लाभ-अलाभ, उच्चावच-ग्रामकंटक, बाईस परीषहों और उपसर्गों को सहन किया जाता है, उस प्रयोजन की आराधना करता है। उसकी आराधना कर चरम उच्छ्वास-निःश्वास में सिद्ध, प्रशांत, मुक्त, परिनिर्वृत और सब दुःखों को क्षीण करने वाला हो जाता
१३६. भंते! वह एसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है।
तेतीसवां उद्देशक ऋषभदत्त-देवानंदा-पद १३७. उस काल और उस समय में ब्राह्मणकुंडग्राम नामक नगर था-वर्णक। बहुशालक
चैत्य-वर्णक। उस ब्राह्मणकुंडग्राम नगर में ऋषभदत्त नामक ब्राह्मण रहता है-वह संपन्न, दीप्तिमान और विश्रुत है यावत् बहुजन के द्वारा अपरिभवनीय है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद-ये चार वेद, पांचवां इतिहास, छठा निघण्टु-इनका सांगोपांग रहस्य-सहित सारक (प्रवर्तक), धारक और पारगामी है। वह छह अंगों का वेत्ता, षष्टितंत्र का विशारद, संख्यान, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्द, निरुक्त, ज्योतिष-शास्त्र, अन्य अनेक ब्राह्मण और परिव्राजक संबंधी नयों में निष्णात है। वह श्रमणोपासक जीव-अजीव को जानने वाला, पुण्य-पाप के मर्म को समझने वाला, यावत् यथा परिगृहीत तपःकर्म के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए रह रहा है। उस ऋषभदत्त ब्राह्मण के देवानंदा नाम की ब्राह्मणी थी-सुकुमाल हाथ-पैर वाली यावत् प्रियदर्शिनी, सुरूप श्रमणोपासिका, जीव-अजीव को जानने वाली, पुण्य-पाप का मर्म समझने वाली यावत् यथा-परीगृहीत तपःकर्म के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए रह रही
१३८. उस काल और उस समय में स्वामी आए। परिषद् ने पर्युपासना की। १३९. वह ऋषभदत्त ब्राह्मण इस कथा की जानकारी प्राप्त कर हृष्ट-तुष्ट चित्त वाला,
आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्ण मन वाला, परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाला हो गया। जहां देवानंदा ब्राह्मणी है वहां आता है, आ कर देवानंदा ब्राह्मणी से इस प्रकार कहता है-देवानुप्रिये ! श्रमण भगवान महावीर आदिकर यावत् सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, आकाशगत
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