Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. ११ : उ. ९: सू. ६१-६४ आज्ञा, ऐश्वर्य, सेनापतित्व करते हुए, उनका पालन करते हुए आहत नाट्यों, गीतों तथा कुशल वादक के द्वारा बजाए गए वादित, तंत्री, तल, ताल, त्रुटित, घन और मृदंग की महान ध्वनि से युक्त विपुल भोगाई भोगों को भोगते हुए विहार करो, इस प्रकार जय-जय शब्द का प्रयोग किया।
६२. वह कुमार शिवभद्र राजा हो गया - महान हिमालय, महान मलय, मेरु और महेन्द्र की भांति–वर्णक यावत् राज्य का प्रशासन करता हुआ विहार करने लगा ।
६३. उस शिवराजा ने किसी समय शोभन तिथि, करण, दिवस, मुहूर्त, और नक्षत्र में विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य पकवाया । पकवाने के बाद मित्र, ज्ञाति, कुटुम्बी, स्वजन संबंधी, परिजन, राजा और क्षत्रियों को आमंत्रित किया । आमंत्रित करने के पश्चात् स्नान, बलिकर्म (पूजा) कौतुक (तिलक) आदि इष्ट नमस्कार रूप मंगल और प्रायश्चित्त करके शुद्ध - प्रवेश्य (सभा में प्रवेशोचित) प्रवर मांगलिक वस्त्र पहनकर, अल्पभार और बहुमूल्य वाले आभरणों से शरीर को अलंकृत कर भोजन की वेला में भोजन - मण्डप में सुखासन की मुद्रा में बैठा हुआ वह उन मित्र, ज्ञाति, कुटुम्बी, स्वजन, संबंधी, परिजन, राजा और क्षत्रियों के साथ उस विपुल भोजन, पेय, खाद्य और स्वाद्य का आस्वाद लेता हुआ विशिष्ट स्वाद लेता हुआ, बांटता हुआ और परिभोग करता हुआ रह रहा था ।
उसने भोजन कर आचमन किया, आचमन कर वह स्वच्छ और परम शुचीभूत बैठने के स्थान पर आया। वहां उसने उन मित्र, ज्ञातियों, कुटुम्बीजनों, स्वजनों, संबंधियों और परिजनों को विपुल, भोजन, पेय, खाद्य, स्वाद्य पदार्थों से तथा वस्त्र, सुगंधित द्रव्य, माला और अलंकारों से सत्कृत- सम्मानित किया । सत्कृत- सम्मानित कर उन मित्रों, ज्ञातिजनों, कुटुम्बियों, स्वजनों, संबंधियों, परिजनों, राजाओं, क्षत्रियों और राजा शिवभद्र की अनुमति ली । अनुमति लेकर वह बहुत सारे तवा, लोहकडाह, कड़छी, ताम्र-पात्र आदि तापस-भंड लेकर जो गंगा किनारे वानप्रस्थ तापस रहते थे, पूर्ववत् यावत् उनके पास मुंड होकर दिशाप्रोक्षिक तापस के रूप में प्रव्रजित हुआ । प्रव्रजित होकर उसने इस आकार वाला यह अभिग्रह स्वीकार किया - मैं जीवन भर निरन्तर बेले बेले (दो-दो दिन के उपवास) द्वारा दिशा चक्रवालतपः कर्म की साधना करूंगा, मैं आतापन - भूमि में दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर सूर्य के सामने आतापन लेता हुआ विहार करूंगा - इस आकार वाला अभिग्रह अभिगृहीत कर प्रथम बेले का तप स्वीकार कर विहार करने लगा ।
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६४. शिव राजर्षि प्रथम बेले के पारणे में आतापन भूमि से नीचे उतरा, उतर कर वल्कल - वस्त्र पहन कर जहां अपना उटज (पर्णशाला ) था, वहां आया। वहां आकर वंशमय पात्र और कावड़ को ग्रहण किया। ग्रहण कर पूर्व दिशा में जल छिड़का। जल छिड़क कर कहा - पूर्व दिशा के लोकपाल महाराज सोम प्रस्थान के लिए प्रस्थित शिवराजर्षि की अभिरक्षा करें, शिवराजर्षि की अभिरक्षा करें। उस दिशा में जो कंद, मूल, त्वचा, पत्र, पुष्प, फल, बीज, हरित हैं, उनकी अनुज्ञा दें - यह कहकर पूर्व दिशा में गया। जाकर जो वहां कंद यावत् हरित थी उसे ग्रहण किया, ग्रहण कर वंशमय - पात्र भरा, भर कर दर्भ, कुश, समिधा (ईंधन) और पत्र - चूर्ण ग्रहण किया। ग्रहण कर जहां अपना उटज था वहां आया। वहां आकर वंशमय पात्र
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