Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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अशुद्ध
पृष्ठ | सूत्र पंक्ति अशुद्ध ४२ / ३२६ ४ गीतम! १ वह देश
जैसे पूर्ववर्ती ५ वक्तव्य है। विशेष इतना है- शीर्षक विग्रहगति-पद
२ गति | ३ | नैरयिक
अथवा वे अविग्रह ४ अथवा कुछ अविग्रह
गौतम! (वह) १. देश जैसे पूर्ववर्ती वक्तव्य है, इतना विशष हैविग्रह-गति-पद -गति (नरयिक) अथवा अनेक अविग्रह अथवा अनेक अविग्रह होते है, अनेक प्रारम्भ हो आहारक-शरीर की अपेक्षा से गौतम! उस (गर्भ-गत जीव) साथ (वह) ओज (संतान में)
'जीव' शब्द
११ ३
प्राम्भ हो
आहारक-शरीर की अपेक्षा | गौतम! गर्भ-गत जीव | साथ ओज संतान में
पृष्ठ | सूत्र पंक्ति अशुद्ध
शुद्ध भन्ते! वह यह इस प्रकार कैसे भन्ते! यह इस प्रकार कैसे है?
होता है? , भगवान पापित्यीय का परम्परित पार्खापत्यीय (भगवान् पार्श्व का
परम्परित शिष्य) २ चतुर्याम धर्म
चातुर्याम-धर्म पंचमहावतात्मक धर्म -पंचमहाव्रतात्मक-धर्म चतुर्याम धर्म
चतुर्याम-धर्म सप्रतिक्रमण पंचमहाव्रतात्मक धर्म सप्रतिक्रमण-पंचमहाव्रतात्मक-धर्म १ श्रमण निर्ग्रन्थ
श्रमण-निर्ग्रन्थ | २ |बद्ध करता है
-बद्ध करता है श्रमण निर्ग्रन्थ
श्रमण-निर्ग्रन्थ | पृथ्वीकायिक, अष्कायिक, तेजस्कायिक पृथ्वीकायिक-, अकायिक-, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और | तेजस्कायिक-, वायुकायिक,
वनस्पतिकायिक- और त्रसकायिक जीवों
त्रसकायिक-जीवों ८ श्रमण निर्ग्रन्थ
श्रमण-निर्ग्रन्थ ४३८ शीर्षक प्रासु-एवणीय-पद
प्रासुक-एवणीय-पद ३ संसारकान्तार
संसार-कान्तार पृथ्वीकायिक यावत्
पृथ्वीकायिक- यावत् त्रसकायिक जीवों
त्रसकायिक-जीवों कैसे होता है?
कैसे है? करते हैं यावत्
करते है (भ.१/४४२) यावत् ७ ऐपिथिकी और
ऐपिथिकी और साम्परायिकी साम्परायिकी करता है यावत्
करता है (म.१/४४२) यावत् | अविकल रूप से
निरवशेष
१
६
,
वैक्रिय समुद्घात अध्यवसाय तीव्र स्वरवाला यह किसी अपेक्षा से | कहा जा रहा है- बाल | है-यह वह पुरुष गौतम! स्यात् वह पुरूष
वैक्रिय-समुद्घात अध्यवसाय और तीव्र स्वर वाला यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है बाल है-(वह पुरूष) गौतम! (वह) स्यात् (वह पुरूष)
पृष्ठ | सूत्र पंक्ति | | नरयिक जीव
नैरयिक-जीव | २ |-जीवों की भांति (सू.३, ४) वक्तव्य -जीवों (पण्णवणा २८/५-१६)
की भांति वक्तव्य है | एकेन्द्रिय जीवों
एकेन्द्रिय-जीवों वक्तव्य है।
वक्तव्य है (पण्णवणा २८/१) | अपेक्षा ये
अपेक्षा से 'प्राण'
'भूत' जीव शब्द
'सत्त्व 'विज्ञ'
'वेद' से प्राण
से 'प्राण' |८ वह शुभ
सत्त्व शुभ | रहे हैं यावत् भगवान का | रहे है (ओवाइयं सू.१६-५१)
यावत् भगवान का | नगर से
(नगर से) नगर
(नगर-) अथर्वणवेद- ये
अथर्वणवेद-ये ब्राह्मण और परिव्राजक सम्बन्धी ब्राह्मण- और परिव्राजक-सम्बन्धी | आदिकर्ता यावत्
आदिकर्ता (म.१/७) यावत् १८ | आदि हर्षध्वनि
आदि (ओवाइयं सू.५२) यावत्
हर्षध्वनि करता है। ग्रहण
करता है, ग्रहण 'हे गौतम! इस
'हे गौतम!' इस |अगार धर्म से अनगार धर्म अगार-धर्म से अनगार-धर्म कहा- गौतम!
कहा-गौतम! समय श्रमण
समय में श्रमण असंख्येय कोटाकोटि योजन असंख्येय-कोटाकोटि-योजन पर्यव
-पर्यव | नहीं है- वह
नहीं है वह पर्यव
-पर्यव
|-पर्यव |तियच या मनुष्य भव तियेच- या मनुष्य-भव तद्भवयोग्य- तिर्यंच तद्भव-योग्य-तिर्यच मनुष्य भवयोग्य
-मनुष्य-भव-योग्य | मरना । स्कन्दक
मरना-स्कन्दक बालमरण
बाल-मरण धर्मकथा वक्तव्य है। धर्मकथा (ओवाइयं सू. ७१-७७)
वक्तव्य है। ७४, ७ " ५, ६ | इस प्रकार बोला
| इस प्रकार बोला-भन्ते!...... भन्ते!......
३
- पंचेन्द्रिय
(पूर्ति-पण्णवणा, पद २) यावत् पंचेन्द्रिय
शतक २
| गुरुलधु है?
' नैरयिक-जीवों की भांति ज्ञातव्य है। नैरयिक-जीवों (म.१/३७७, ३७८)
की भांति (ज्ञातव्य है)। २ अगुरुलघु है?
अगुरुलघु है।
गुरुलघु है। | अवकाशान्तर की
अवकाशान्तर (म.१/३६२) की २ वर्ष निरूपणीय है। वर्ष (क्षेत्र) निरूपणीय है। प्रकार वैमानिक-देवों तक प्रकार (पूर्ति-पण्णवणा, पद २)
यावत् वैमानिक-देवों तक ' शुक्ल लेश्या तक इसी प्रकार इसी प्रकार (म.१/१०२) यावत् ज्ञातव्य है।
शुक्ल-लेश्या तक (ज्ञातव्य है) 'पुद्गलास्तिकाय
पुद्गलास्तिकाय (भ.१/४०४) २ प्रशस्त है? ३ कोई श्रमण
(कोई श्रमण) शीर्षक x
इह-पर-भविक-आयु-पद परभव
पर-भव
६४ सं. गा." दस उद्देशक है
(दस उद्देशक है। अस्तिकाया
अस्तिकाय || अनगार
अनगार (म.१/६, १०) दीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और द्वीन्द्रिय-, त्रीन्द्रिय-, चतुरिन्द्रियपंचेन्द्रिय जीव
और पंचेन्द्रिय-जीव ५ अकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक (पूर्ति--पण्णवणा, पद २) यावत्
वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय वनस्पतिकायिक-एकेन्द्रिय ३ | २ | ये जीव
(ये जीव) १२ , वायुकायिक-जीव
(वायुकायिक जीव) ३, ४ सर्वत्र | अपेक्षा से
अपेक्षा २ एक वर्ण यावत् पांच वर्ण एक-वर्ण- यावत् पांच-वर्ण ४ एक-वर्ण-यावत्
एक-वर्ण- यावत् वर्ण-यावत्
वर्ण- यावत् अपेक्षा से कदाचित्
अपेक्षा कदाचित् (१०)