Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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शुद्ध
पृष्ठ | सूत्र पंक्ति अशुद्ध २३६ | ११६ | ५ | नैरयिक
नैरयिकों के भी, इस प्रकार | " | ६ असात-वेदनीय-कर्म का बन्ध होता | (असात-वेदनीय-कर्म बन्ध की
वक्तव्यता) | भरत क्षेत्र
भरतक्षेत्र
वर्ण वाले, केश वाले, वाले, विषम समय में गंगा और सिंधु-दो इक्कीस-हजार-वर्ष (कालमास में काल कर) यावत् (म. ७/१२१) कहां हैं? (अथवा) काम
१३ | वाले, तुच्छ मुख, विषम २ समय गंगा और सिंधु-दो
७ इक्कीस हजार वर्ष १२२ | ३ | कालमास में काल कर
१२३ " यावत् कहां १२७-३०१ हैं अथवा २७-२८
२ हैं, अरूपी १२८-२ " और | १३०| २ | हैं, अजीवों
" | २ | हैं, अरूपी १३३ | " भी हैं और अचित्त भी है? १३३-३४ २ और
हैं, काम अरूपी
और काम हैं, काम अजीवों है, भोग अरूपी है? (अथवा) भोग उचित्त है?
और भोग हैं, भोग
पृष्ठ | सूत्र पंक्ति अशुद्ध
शुद्ध २४३ | १४५ / १ भंते! कामभोगी, नो कामी-नो भोगी मते! इन जीवों में कामभोगियों,
और भोगी-इन जीवों में कौन नोकामीभोगियों और भोगियों में किससे अल्प,
कौन किनसे अल्प, " | " ३, ४ अनन्त-गुना अधिक
अनन्त-गुणा | १ |सब दुःखों को
(सब दुःखों का) २ करने में योग्य
करने के योग्य ३ | मोहजाल में आच्छादित मोहजाल से आच्छादित समनस्क भी
समनस्क प्राणी भी नहीं है,
नहीं हैं, यह प्रभु
ये प्रभु | वेदना करता है।
वेदन करते हैं। नहीं है,
नहीं है, " | ४ | यह प्रभु करता है।
करते हैं। * ६,५७१ भंते! क्या
भंते! (क्या) * | १५६ , निरन्तर गतिशील अनन्त अतीत अनन्त अतीत शाश्वत काल में
समय में " | २ |ब्रह्मचर्यवास, केवल प्रवचनमाता की ब्रह्मचर्यवास और केवल प्रवचनमाता आराधना के
के हुए? सब दुःखों का अन्त किया? हुआ था? उसने सब दुःखों का
अन्त किया था? | ४ |संगत नही है।
संगत नही है (म. १/२०१-२०८)
यावत्अर्हत जिन
अर्हत, जिन वाली) शाला
वाली)-शाला सर्वत्र कूटाकार शाला
कूटाकार-शाला निवात-गंभीर
निर्वात-गंभीर ५ शाला के चारों ओर शाला के भीतर-भीतर प्रवेश करता
है। उस कूटाकार-शाला के चारों ओर प्रदेशों में सचित्त
प्रदेशों से सचित्त | पाप कर्म
पापकर्म ४ सुख है। इसी प्रकार वैमानिक तक | सुख है, इस प्रकार (पूर्ति-पण्णवणा,
के सभी दण्डकों की वक्तव्यता पद २) यावत् वैमानिकों की (वक्तव्यता)। | १ |भन्ते! संज्ञा के कितने प्रकार प्रज्ञप्त भन्ते! कितनी संज्ञाएं प्रज्ञप्त है? |
पृष्ठ | सूत्र पंक्ति अशुद्ध
शुद्ध २ | हुए यावत्
हुए (म. ३/२९०) यावत् ५ सुसज्ज यावत्
सुसज्ज (ओवाइयं, सू. ५७) यावत् | ७ करने लगा।
करने लगा (ओवाइयं, सू. ६३) | १ था यावत्
था (ओवाइयं, सू.६५) यावत् एक६ एकहस्तिका से भी
हस्तिका (एक उपकरण जिसके द्वारा
कंकड आदि फेंके जाते हैं) से भी १ |-कंटक- संग्राम
-कंटक-संग्राम शीर्षक :
रथमुसल-संग्राम-पद ३ (इन्द्र) विदेहपुत्र
(इन्द्र), विदेहपुत्र जीते। नौ
जीते, नौ २ बुलाया बुला
बुलाया, बुला हुए यावत्
हुए (म. ३/११०) यावत् ५ | सुसज्ज यावत्
सुसज्ज (ओवाइयं, सू. ५७) यावत् ७ लगा यावत्
लगा (ओवाइयं, सू. ६३) यावत् १८६ | १ था यावत्
था (ओवाइयं, सू. ६५) यावत् १८८ | " रथमुसल संग्राम
रथमुसल-संग्राम १६०/ ३ हुए। ६२८, २ | हैं यावत्
हैं (म. १/४२०) यावत् " | ५ हूं यावत्
हूं (म. १/४२१) यावत् " | ७ | सम्पन्न यावत्
सम्पन्न (म. २/६४) यावत् ८ वाला, यावत्
वाला (म. २/६४) यावत् १० | बेले-बेले के तपः कर्म द्वारा अपने षष्ठ-षष्ठ (दो-दो दिनों के उपवास
-रूप) तपःकर्म के साथ अपने १ ने यावत्
ने (म. ७/१७५) यावत् " ध्वजायुक्त
ध्वजायुक्त (रायपसेणियं, सू. ६८१) ४ आकर यावत्
आकर (म. ७/१७५) यावत् |" |किया, कटसरैया
किया (पूर्ति-भ.७/१७६), | २५३ | २०३/" खींच कर
खींचकर "६, १० को यावत्
को (ओवाइयं, सू. २१) यावत् " | १४ | प्राणातिपात यावत्
प्राणातिपात (म. ७/३२) यावत्
। " (म. १/३८४) यावत् | १६ जीवन - भर
जीवन-भर 2, १८ | प्रिय यावत्
प्रिय (भ. २/५२) यावत् ५ भांति यावत्
भांति (म. ७/२०३) यावत् जा कर पूर्व
जाकर पूर्व १ देव-सामर्थ्य
देवानुभाग सुन कर देख कर
सुनकर और देखकर . किया यावत्
किया (म. १/४२०) यावत् २ | होगा यावत्
होगा (म. ७/२०८) यावत् १ नगर का
(नगर का) २ वर्णन। यावत्
वर्णन (ओवाइयं, सू. २-१३) यावत् ४ अजीवकाय
अजीव-काय
"३८-३६१ है,
१३६ २ हैं।
| १४०१ नैरयिक कामी है अथवा भोगी? | नैरयिक क्या कामी है? (अथवा)
भोगी है? " | २ |नैरयिक से लेकर स्तनितकुमार तक | इसी प्रकार (पूर्ति-पण्णवणा,पद २) जीव की भांति वक्तव्य है। यावत् स्तनितकुमार (जीवों (म.७/1
-१३८, १३६) की भांति वक्तव्य है)। १४१ | १ | विषय में पृच्छा
(विषय में)-पृच्छा। |-जीवों के विषय में भी यही वक्तव्यता -जीव भी इसी प्रकार (वक्तव्य है), है, केवल इतना
इतना ७ भोगी हैं।
(भोगी है)। जीवों के विषय में पृच्छा। | जीवों की पृच्छा। २ चतुरिन्द्रिय जीव
चतुरिन्द्रिय-जीव भन्ते! चतुरिन्द्रिय-जीव किस अपेक्षा यह किस अपेक्षा से (ऐसा कहा जा से कामी भी हैं, भोगी रहा है-चतुरिन्द्रिय-जीव कामी भी
| है,) यावत् भोगी | गौतम! इस अपेक्षा से वे कामी भी गौतम! यह इस अपेक्षा से (एसा कहा है, भोगी भी है।
जा रहा है-) यावत् भोगी भी है। " |३-४ वैमानिक तक सभी दण्डकों की (सभी दण्डकों के जीव) जीवों की
वक्तव्यता जीव के समान है। भांति (वक्तव्य है) यावत् वैमानिका
.
| २ संज्ञा के दश प्रकार प्रज्ञप्त है, दश संज्ञाएं प्रज्ञप्त है, | | मैथुन- संज्ञा
मैथुन-संज्ञा " |३-४ वैमानिक तक के सभी दण्ड़कों में इस प्रकार (पूर्ति-पण्णवणा, पद श
| दशों संज्ञाएं होती है। यावत वैमानिकों की (वक्तव्यता)। |२४७ | १६५ / १, ३ | श्रमण निर्ग्रन्थ
(श्रमण-निर्ग्रन्थ) " ४,५ यावत् (पू. म. १/४३६-४४०) (पू. म. १/४३६-४४०) यावत् १७३ | २ | (कूणिक) जीते
(कूणिक या कोणिक) जीते, • ४ गणराज हारे
गणराजा हारे
.
(२१)