Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 537
________________ पृष्ठ सूत्र पंक्ति २८६ १६४, २ १६२५ -ज्ञानी की सादि अपर्यवसित १६७ २०० ३. काल यावत् २०१ 9 आभिनिबोधिक ज्ञानी २८६ - ६१ सर्वत्र सर्वत्र किससे २०५ ४ अवधि- ज्ञानी २६० २०६ ४ ज्ञानी २०७ ५ अवधि-ज्ञानी २६१-६२ सर्वत्र सर्वत्र कौनसे २६१ | २१८ २१६ १, २ ७, ६ २ २२५ २ २६३ | २२८, १ २३० *********····Õ· · ⠀ ⠀ ≈ · ·☎‡·· ⠀ ⠀ · · õ ‡ · ¦ ¦ ¦ २६२ ....... एक-अस्थि वाले पद ( पद १० ) निरवशेष राजगृह नगर में समवसरण यावत् राजगृह (भ. गौतम ने इस ५. है। यावत् २३० शीर्षक आजीवक २६३-६६ सर्वत्र सर्वत्र आजीवकों/ आजीवक २६३ २३१ ३ उसका भाण्ड अभाण्ड २३३ २ है? तो " है। ३ २३४ उसकी जाया अजाया २ प्राण वियोजन २४१ २६७ २४८ शीर्षक पिण्डादि परिभोग २५२ २५४ २, ३ आल- चिना २५५ ४ २६० २ " २६६ २६८ । २७१ ३ अशुद्ध ३ एक अस्थि एक अस्थि एक अस्थिवाले पद निरवशेष २ छिन्न- प्रक्षिप्यमान नैरयिक की भांति वक्तव्यता, इसी यह प्रथम (नैरयिक सू. २५८ ) की वक्तव्य है। ६ शरीर और हैं। प्रत्येक जीव की जीव की वक्तव्यता है आहारक- शरीर शुद्ध -ज्ञानी भी सादि-अपर्यवसित काल (म. ८/१६८) यावत् आभिनिबोधिक ज्ञानियों किनसे अवधि ज्ञानियों ज्ञानियों अवधि ज्ञानियों कौन-से एक अस्थि एक अस्थि है यावत् आजीविकों १/४-८) यावत् इस आजीविकों / आजीविक (उसका भाण्ड अभाण्ड) है, तो ( उसकी जाया अजाया) प्राण- वियोजन पिण्डादि- परिभोग है आलोचना छिन्न, प्रक्षिप्यमान इसी प्रकार (नैरयिक की भांति) ( वक्तव्य है)। इस जीव (भ. ८ / २५८ ) की जीवों (उक्त है) आहारक- शरीर भी -शरीर भी और है-प्रत्येक वर्णन यावत् आदिकर (भ. १/७) वर्णन, यावत् आदिकर हुए। परिषद् आई, धर्मदेशना सुन हुए (भ. १ / ८) यावत् परिषद् लौट वह लौट इस प्रकार यह भी (नैरयिक म. ८ / २५६) वक्तव्य है पृष्ठ सूत्र पंक्ति ३०१ २७३ ३०२ २७७ ७. २७६ ३०३ २८८ ३०४ २६५ " ३०६ ....... ३०५ २६५- सर्वत्र गौतम! ३०० ३०७ ३०७ ... *** , ३०८ ३०३ ३०५ ३०७ ३०८ ३०६ ३०६ ३१० है? स्त्री मनुष्य स्त्री ३०४ १ भंते! क्या . ३११ ३ ३१२ २ ३१४ १ ३१४ 19 ३०६ २ -~-~~ २ ८ १, २ ? क्या २,४ ३,४ हैं दोनों बार ६ ७ ३ १ २ ३ ४ ५ ३ १ आ कर आकर असंयत यावत् संयत यावत् को न आक्रांत, अभिहत, यावत् उपद्रुत करते असंयत (म. ८ / २७६) यावत् संयत (म. ८ / २७८) यावत् को आक्रांत, अभिहत यावत् उपद्भुत नहीं करते में समवसरण यावत् गौतम स्वामी में (भ. १/४-१०) यावत् इस ने इस अपेक्षा २ २ क्या बंध अशुद्ध करेगा। किसी प्रकार सर्व होता । अनादि मत! क्या बंध क्या नैरयिक करता है? यावत् देवी करती भंते! क्या है उसी प्रकार यावत् है, यावत् ( एक वचन) रहित बंध वक्तव्यता है १. १-२ है? यावत् भंते! १. क्या जीव ने उस सांपरायिक कर्म का बंध करेगा? ४. भंते! क्या ऐर्यापथिक वक्तव्यता यावत् ( २५ ) गौतम! ( शुद्ध अपेक्षा) है? मनुष्य स्त्री मनुष्य- स्त्री भंते! उस (ऐर्यापथिक कर्म) का क्या ? है? है? बध करेगा, किसी प्रकार वही सर्व होता, अनादि भंते! उस (एर्यापथिक कर्म) का क्या क्या नैरयिक बंध बन्ध करता है? (म. ८/३०३) यावत् (अथवा ) देवी बंध करती भंते! उस (सांपरायिक कर्म) का क्या है? उसी प्रकार (भ. ८/३०४) यावत् (अथवा ) है यावत् (एकवचन) रहित (बहुवचन) बंध (वक्तव्यता है) (म. ८/३०५) यावत् भंते! उस (सांपरायिक कर्म) का क्या जीव ने १. बंध करेगा ? (अथवा ) ४. भंते! उस (सांपरायिक कर्म) का क्या है? ऐर्यापथिक (वक्तव्यता) (भ. ८/३०८) यावत् पृष्ठ सूत्र पंक्ति गौतम! ३०८ ३१७ ३ ३०८-१० ३१८- सर्वत्र गौतम! ३२८ २०८-०६ ३१८-२२ सर्वत्र कर्म में ३०६ ORAR ******* ३१० R ३११ . ३२३, ३२५, ३२७, ...... ३२१ ३२३ == ३२४ ३२५ ... .. ३२६ m २ २-३ ४ ३४० ३४१ ३४२ ५, ६ १ १ २ ३. ४, ५ १ ३ ३२७ १, ३ ३ ४ ३३१ ३३४ ३३८ २ ३३६ ३. १ ४-५ ३२८ १, २ २ ३ ४-६ करता। ३४२ ३४३ ३४५ २ ३ १ अशुद्ध -चरित्र पुरुष के वेदन बीस परिषहों का करता है। करता। पुरुष के परिषह की वक्तव्यता। सराग छद्मस्थ सराग छद्मस्थ के वेदन बारह परिषहों का सयोगी भवस्थ केवली के वेदन नौ परिषहों का सराग छद्मस्थ की भांति अयोगी भवस्थ केवली के वेदन नौ परिषहों का करता है। है, यावत् करते यावत् होती यावत् ऊर्ध्व क्षेत्र अधो-क्षेत्र ( तीसरी प्रतिपत्ति) करता । वीतराग छद्मस्थ गौतम ! छह गौतम! इसी प्रकार छह सराग छद्मस्थ की भाँति व्यक्तव्यताः (सराग छद्मस्थ) की भांति (वक्तव्यता) । सयोगि भवस्थ केवली के) नौ परिषहों का वेदन इन्द्रस्थान बाह्यवर्ती चन्द्र शुरू गौतम! ( इन बाईस परीषह का ) गौतम! ( हैं। (तीसरी प्रतिपत्ति) इन्द्रस्थान गौतम! दो -कर्म में) -चारित्र पुरुष के) बीस परिषहों का वेदन करता, करता, ( पुरुष के परिषह) की भी (वक्तव्यता)। सराग- छद्मस्थ सराग छद्मस्थ के) बारह परिषहों का वेदन करता, वीतराग छद्मस्थ ( सराग छद्मस्थ) की भांति अयोगि भवस्थ केवली के) नौ परिषहों का वेदन करता है करता, है यावत् करते (भ. १/२५६-२६६) यावत् होती ( म. १/२५६ - २६६) यावत् ऊर्ध्व क्षेत्र अधो क्षेत्र (३/८४२, ८४३) इन्द्र-स्थान बाह्यवती जो चन्द्र (३/८४५, ८४६ ) इन्द्र-स्थान गौतम! (बंध) दो

Loading...

Page Navigation
1 ... 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546