Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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पृष्ठ | सूत्र पंक्ति १६ | १३७ ४
पृष्ठ | सूत्र |पंक्ति २१ | १५६/५
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"
गमनीय है) वह स्वभाव से
अशुद्ध गौतम! जीव जीव उदीर्ण कर्म का जो वेदन है, वह क्या उत्थान
|पृष्ठ | सूत्र पंक्ति সন্মুক্ত
शुद्ध २३ | १७४ | ३ | हुआ है-इस अंश तक यह ज्ञातव्य होता है, वहां तक ज्ञातव्य है।
गौतम! (जीव) (जीव) जिस उदीर्ण कर्म का वेदन है, उस (कर्म) का वेदन (वह) क्या
१४८१
अपने आप ही जो उदीरण
|.
सं. गा. ३ | होता है?
१ उदयकाल
| होता है? ||११॥ उदय-काल
उत्थान
| १
-
अथवा अनुत्थान
-
करता है, अपने ही जो कहाँ अपने आप ही जो संवरण
| २
"
४ जीव उदीर्ण कर्म का जो वेदन ५ | किन्तु अनुत्थान
गमनीय है।
वह स्वभाव से | जिस कर्म की अपने आप ही
उदीरणा करता है, (जिस कर्म की) अपने
ही गर्दा | (जिस कर्म का) अपने आप ही |संवरण (वह) क्या उस-१. (उदय-प्राप्त) (कर्म) की २. अनुदीर्ण (कर्म) की गौतम! (जीव) १. उदीर्ण (कर्म) की| मन्ते! (जीव) जिस अनुदीर्ण की उदीरणा है, उस (कर्म) की उदीरणा (वह) क्या गौतम! (जीव) जिस अनुदीर्ण की उदीरणा है, उस (कर्म) की उदीरणा (वह) उत्थान
अथवा उस (कर्म) का वेदन | अनुत्थान (जीव) उस उदीर्ण कर्म का वेदन किन्तु उस उदीर्ण (कर्म) का वेदन | (वह) अनुत्थान भन्ते! (जीव) जिस (कर्म) की अपने
१८७ ३ | मोहनीय कर्म
शीर्षक कर्ममोक्ष-पद
१ पाप कर्म ३ था। १ ज्ञातव्य है। केवल-सिद्ध
क्रिया-पद
मोहनीय-कर्म कर्म-मोक्ष-पद पाप-कर्म था? ज्ञातव्य है, इतना अन्तर है-सिद्ध
१ भन्ते! जीव अपने सर्वत्र | आप ही जो +-२ | है, वह क्या १. उदीर्ण की
आप ही
क्रियापद
है, (वह) क्या उस-१. उदीर्ण (कर्म)
| वह क्या-१.
| (उदय-प्राप्त) की |३, ५ २. अनुदीर्ण की
५ गौतम! जीव १. उदीर्ण की १ भन्ते! जीव अनुदीर्ण " की जो उदीरणा
है, वह क्या ४ गौतम! जीव अनुदीर्ण " की जो उदीरणा
है, वह उत्थान
होता है।
होगा।
|२, ५ २. अनुदीर्ण की | ५ | गौतम! १. जीव उदीर्ण कर्म की
|
था? होता है? होगा? शाश्वत-काल
२. अनुदीर्ण (कर्म) की गौतम! १. (जीव) उस उदीर्ण (कर्म)
शाश्वत काल
३ | उत्पन्नज्ञान दर्शन | १ | 'अलमस्तु' ऐसा कहा
उत्पन्न-ज्ञान-दर्शन 'अलमस्तु' (जो ज्ञान की परम कोटि तक पहुंच चुका है, जिसके लिए कोई ज्ञान पाना शेष नहीं है) ऐसा कहा | (रत्नप्रभा पृथ्वी के संग्रहणी गाथा
६
से नहीं करता।
से उस अनुदीर्ण किन्तु उदीरणा-योग्य कर्म की उदीरणा नहीं करता। भन्ते! (जीव) जिस (कर्म) का अपने|
१
भन्ते! जीव अपने
२८ | २१२ २ रत्नप्रभा पृथ्वी के " सं. गा. दो और २१२ तीन के
बीच में . सं. गा. ३ | नरकावास | | २१२
| ३ लाख। द्वीपकुमार
नरकावास ।।१।।
आप ही (वह) क्या उस-१. उदीर्ण (कर्म) का | २. अनुदीर्ण (कर्म) का
करता है?
| सर्वत्र | आप ही जो | २ |वह क्या-१. उदीर्ण का २-३,५/२. अनुदीर्ण का | ३ | करता है। | ५ गौतम! जीव १. उदीर्ण का
१ भन्ते! जीव अनुदीर्ण " जो उपशमन " है, वह क्या उत्थान
२१३
" कर्म की जो निर्जरा जिस कर्म की निर्जरा |" है, वह क्या
है, उस (कर्म) की निर्जरा (वह) क्या | २ अथवा अनुत्थान
अथवा उस (कर्म) की निर्जरा
अनुत्थान - कर्म की जो निर्जरा उस कर्म की निर्जरा ५ | किन्तु अनुत्थान
(किन्तु) उस (कर्म) की निर्जरा
(वह) अनुत्थान | २२ | १६३ | १ करते हैं।
करते हैं? जैसे समुच्चय में जीव की वक्तव्यता जैसे (म. १/१२६-१६२ में) औधिक है, वैसे ही नैरयिक जीवों से (समुच्चय) (उक्त है), वैसे (पूर्तिस्तनितकुमार तक वक्तव्य हैं। पण्णवणा, पद २) नैरयिक-जीव
यावत् स्तनितकुमार (वक्तव्य है)। | २३ | १६६३ आलापक-इससे
(आलापक) पूर्ववत् (म.१/१२६
|-१६२) यावत् इससे | ४ वहां तक वक्तव्य है। (वहां तक वक्तव्य है। |+२ |अप्काय आदि एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, इसी प्रकार (पृथ्वीकायिक-जीवों की
त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय का आला- भांति) (पूर्ति-पण्णवणा, पद २) पक पृथ्वीकायिक जीवों की भांति (अप्काय आदि एकेन्द्रियों, द्वीन्द्रियों,
त्रीन्द्रियों) यावत् चतुरिन्द्रियों (का
आलापक) | २३ | १६८१ समुच्चय जीव की भांति औधिक (समुच्चय) जीवों (म.१४
१२६-१६२) की भांति |" श्रमण निर्ग्रन्थ
श्रमण-निर्ग्रन्थ 1१,२ है, जो
है जो | २ | कर्मप्रकृति (पण्णवणा, २३) के कर्मप्रकृति-पद का प्रथम उद्देशक | प्रथम उद्देशक का
(पण्णवणा, २३/१-२३)
| ४ | आवास है।
| सौधर्म में
लाख ||१11
द्वीपकुमार आवास है ॥२॥ (सौधर्म में)
गौतम! (जीव) १. उदीर्ण (कर्म) का भन्ते! (जीव) जिस अनुदीर्ण उपशमन है, उस (कर्म) का उपशमन (वह)
क्या उत्थान (अथवा) उस अनुदीर्ण (कर्म) का उपशमन (वह) अनुत्थान गौतम! (जीव) उस अनुदीर्ण (कर्म) है, (किन्तु) उस अनुदीर्ण (कर्म) का उपशमन (वह) अनुत्थान आप ही और (जिस कर्म की) अपने (वह) क्या उस-१. उदीर्ण (कर्म) २. अनुदीर्ण (कर्म) का
|अथवा अनुत्थान
" | ४ गौतम! जीव अनुदीर्ण कर्म
५ है, किन्तु अनुत्थान
ईशान में
सनत्कुमार में " माहेन्द्र में
ब्रह्म में लान्तक में शुक्र में
हजार विमान है। २६ सं. गा. ६ | सात सौ विमान है।
| " | पांच ही हैं। " | २१५/६ और सं. गा.१० के
बीच में
(ईशान में) (सनत्कुमार में) (माहेन्द्र में) (ब्रह्म में) (लान्तक में) (शुक्र में) हजार विमान हैं ॥११॥ सात सौ विमान है ।।२।। पांच ही हैं ।।३।। | संग्रहणी गाथा
| सर्वत्र | जो आप ही
१ और अपने २ वह क्या-१. उदीर्ण
२. अनुदीर्ण का
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